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________________ प्रवचनसार [ १३७ धुर कौन इनमें है जिसे, आधार घरि हो3 यही । यों कइत छिनछायी दरवमें, दोष लागगो सही ॥१०७॥ दोहा । तात कालानू दरव, ध्रौव गहोगे जव्य । निरावाध एकै समय, तीनों सधि हैं तब्ब ॥१०८॥ मदावलिप्तकपोल । फाल दग्वमें जो प्रदेशको थापन कीना । तो असंख कालानु, मिन्न मति कहो प्रवीना ॥ कहो अखंडप्रदेश, लोकपरमान तासु कहँ । ताहीत उतपन्न समय, परजाय कहो तह ॥१०९॥ मनहरण । कालको अखंड मानें समय नाहिं सिद्ध होत, समय परजाय तो तय ही उपजत है। जब कालअनू भिन्न भिन्न होहिं सुभावते, तहां पुगलानू जब चले मंदगत है ॥ एकको उलंघि जब दूजे कालअनूपर, तामें जो विलंब लग सोई समै जत है । अखंडप्रदेशी मानें कैसे . गतिरीति गर्न, फैसे करै कालको प्रमान कहु सत है ॥११॥ दोहा। तासे कालानू दरव, मिन्न गहोगे जव्य । निरावाध एक समय, तीनों सधि हैं तब्य ॥११॥ wwwx
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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