SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ ] कविवर वृन्दावन विरचित ऐसो परदेस जाके येकी नाहिं पाइये तो, बिना परदेस कहो कसो ताको भैस है । सो तो परतच्छ ही अवस्तु कन्यरूप भयो, कैसे करि जाने ताके सामान्य विशेत है । अस्तिरूप वस्तुहीके होत उतपाद वय, गुन परजायमाहिं गसो उपदेस है ॥ १०३ ।। दोहा । जो प्रदेश” रहित है, सो तो भयो अवस्त । ताके धुव उतपाद वय, लोपित होत समस्त । १०४ ॥ ताते काल दरव गहो, अनुप्रदेश परमान । तब तामें तीनों सधैं निरावाघ परधान ॥ १०५॥ मनहरण । केई कह समय परजायहीको दर्व कहो, प्रदेशप्रमान कालअनू कहा करसै । समै ही अनादित निरंतर अनेक अंश, परजायसेती उतपाद-पद परसें ।। तामें पुन्वको विनाश उत्तरको उतपाद, पर्जपरंपरा सोई धौव धारा वरस । ऐसे तीनों मेद भले सधे परजायहीमें, तासों स्यादवादी कहै यामें दोष दरसै ॥ १०६ ।। गीता । जिस समयका है नाश तिसका, तो सरवथा नाश है। जिस समयका उतपाद सो, भी सुतह विनशत जात है ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy