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“पीठिका जसु आदिसु अंत विरोध नहीं, नित लक्षण स्याद सुवाद धरै ।। वह श्री जिनशासनको भवि वृंद, अराधत प्रीति प्रतीति भरै ॥ २२ ॥
दोहा । . .: पुनि प्रनों परब्रह्ममय, पंच परमगुरु रूप । जासु ध्यानसे पाइये, सहज सुखामृत कूप ॥ २३ ॥ : 'आदि अकार हकार सिर, रेकनाद जुतपिंदु । सिद्धवीज जपि सिद्धिप्रद, पूरन शारदइन्दु ॥ २४ ॥ 'माया वीज नमो सहित, पंचवरन अमिराम । मध्य वीज अरहंत जसु, स्वधा सुधारस घाम ॥ २५ ॥ निजघट-क्षीर समुद्रमधि, मन अंबुज निरमाप । वर्ग पत्र प्रति मध्य तसु, श्री अरहंत सुथाप ॥ २६ ॥ स्वासोस्वास निरोधिके, पूरनचन्द्र समान । करो ध्यान भवि वृन्द जहँ, झरत सुधा अमलान ॥ २७ ॥ पुनि वाचक इहि वरनको, शुद्धब्रह्म अरहन्त । सहित अनन्त चतुष्ट तिहिँ, ध्यावो थिर चित्त संत ॥ २८ ॥ . इमि दृढतर अभ्यास करि, पुनि तिहि सम निजरूप । ध्यावो एकाकार थिर, तबहिं होहु शिवभूप ॥ २९॥ . ये ही मङ्गलमूल जग, सर्वोत्तम हैं येह । . इनकी शरनागत रहो, उर धरि परम सनेह ॥ ३० ॥
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१-अहँ । २-ह्रीं ।