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________________ १०६ ] कविवर वृन्दावन विरचित __एके काल नाहिं जात कह्यो तातें अकथ है, फेर सोई अस्ति अवक्तव्य सु अनूप है । फेर नास्ति अकथ औ अस्ति नास्ति अकथ है, कथंचित्वानी सो सुधारसको कूप है ॥ ७५ ॥ तथा चोक्तं देवागमकारिकायांभावैकान्ते पदार्थानामभावानामपद वात् । सर्वात्मकमनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम् ॥ ९ ॥ कार्यद्रव्यमनादि स्यात्प्रागभावस्य निन्हवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत ॥ १०॥ सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे । अन्यत्र समवायेन व्यपदिश्येत सर्वथा ॥ ११ ॥ अभावकान्तपक्षेऽपि भावापह्नववादिनाम् । बोधवाक्यं प्रमाणं न केन साधनदूषणम् ॥ १२ ॥ दोहा । एक अरथवाचक शबद, भावअस्ति ये जान । कहु अभाव के नास्ति बहु, दोनों अग्थ समान ॥ ७६ ॥ जो पदार्थ सब सर्वथा, गहिये भावहिरूप । अरु अभाव सब लोपिये, तो तित दूषना ॥ ७७ ।। एक दरव सरवातमक, तब निह है जाय । आदि अंत पुनि नहिं बन, कीजे कोटि उपाय ॥ ७८ ॥ ज्यों माटीमें पुध ही, कुंभ नहीं है रोप । प्रागभाव याको कहत, ताको है है लोप ॥ ७९ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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