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________________ प्रवचनसार [९७ । (१०) गाथा-१०२ अब उत्सादादिका क्षण भेद खंडित करके यह समझाते हैं कि वह द्रव्य है। काव्य । उतरत-वय-धुव नाम सहित, जो भाव कहा है । दरव तासुते एकमेक ही, होय रहा है ॥ पुनि सो एकहि समय, त्रिविध परनवति अभेदं । तात त्रिविघसरूप, दरख निहचै निरवेदं ॥४६॥ दोहा । यहाँ प्रश्न कोई करत, उतपादादिक तीन । जुदे-जुदे समयनिवि, क्यों नहिं कहत प्रवीन || ४७ ॥ तीन काज एकै समे, कैसे हो है सिद्ध । समाधान याको करौ, हे आचारज वृद्ध ॥ ४८ ॥ उतपादिकके पृथक, पृथक दरव जो होय । तब तो तीनों समयमें, तीन संभ सोय || ४९ ॥ जहां एक ही दरव है, तहँ इक समयमैंझार । तीनों होते संभवत, दखदिष्टि के द्वार ॥ ५० ॥ मनहरण । दहीकी निज परजाय औ सु पर्नतिरौं, उतपाद-धुव-वय दशा होत वरनी । दर्व दोनों रूप परिनवै आप आपहीमें, ताहीकी अपेक्षा एकै समै तीनों करनी ॥ मृत्तिकातें कुंभ जथा माटी धुव दोनोंमाहिं, द्रव्य द्वार एकै समै ऐसे उर धरनी ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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