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________________ अद्वितीय परम-(तत्व) के प्रति ज्ञानी कभी भी प्रमाद न करे। वीर सदा आत्मा से संयुक्त (रहे) (तथा) केवल (संयम)-यात्रा के लिए शरीर का प्रतिपालन करे। (वह) बड़े और छोटे रूपों से विरक्ति करे। (जो) (संसार में) आने और (संसार से) जाने को (द्रष्टाभाव से) जानकर (लोक में विचरण करता है), (जी) दोनों ही अन्तों द्वारा समझा जाता हुआ (समझा जाने वाला) नहीं होने के कारण (द्वन्द्व से परे रहता है), वह लोक में कहीं भी (किसी के द्वारा) थोड़ा-सा (भी) न छेदा जाता है, न भेदा जाता है, न जलाया जाता है, तथा न मारा जाता है। कुछ लोग भविष्य के साथ-साथ) पूर्वागामी (अतीत) को मन में नहीं लाते हैं, इसका अतीत क्या (था)? और (इसका) भविष्य क्या (होगा) ? किन्तु, कुछ मनुष्य यहाँ कहते हैं (कि) इसका जो अतीत (था) वह (ही) (इसका) भविष्य (होगा)। इसके विपरीत वीतराग न अतीत-प्रयोजन को तथा न भविष्य-प्रयोजन को देखते हैं। अव (वर्तमान) को देखने वाला सम्यक्स्पष्ट (समतामयी) आचरण के द्वारा कर्मों का नाश करने वाला होता है)। 66 हे मनुष्य ! तू ही तेरा मित्र (है), (तू) बाहर की ओर मित्र की तलाश क्यों करता है ? जिसे (तुम) ऊँचे (आध्यात्मिक मूल्यों) में जमा हुआ जानो, उसे (तुम) (आसक्ति से) दूरी पर जमा हुआ जानो, जिसे (तुम) (आसक्ति से) दूरी पर जमा हुआ जान लो, उसे (तुम) ऊँचे (आध्यात्मिक मूल्यों) में जमा हुआ जानो। चयनिका ] [ 43
SR No.010767
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1987
Total Pages199
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Grammar, & agam_related_other_literature
File Size5 MB
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