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________________ 26. में आसक्त (व्यक्ति) कर्म - बन्धन (शान्ति) को उत्पन्न करते हैं । ( किन्तु ) वह अनासक्त (व्यक्ति) जो पूरी तरह से समता को प्राप्त निज प्रज्ञा के द्वारा (जीता है), ( वह) अकरणीय हिंसक कर्म (पूर्णतया छोड़ देता है) तथा ( वह ) ( हिंसा के साधनों की खोज करने वाला नहीं (होता है ) | जो इन्द्रियासक्ति ( है ), वह (प्रशान्ति का ) आधार ( है ) ; जो (शान्ति का ) श्राधार (है), वह (ही) इन्द्रियासक्ति ( है ) । इस प्रकार वह इन्द्रिय विषयाभिलाषी (व्यक्ति) महान दुःख से (जीवन-यात्रा चलाता है) (तथा) (सदा) प्रमाद (मूर्च्छा ) में वास करता है । ( वह) दिन में तथा रात में भी दुखी होता हुआ ( जीता है); ( वह ) काल - काल में (तुच्छ वस्तुनों की प्राप्ति के लिए) प्रयत्न करने वाला (वना रहता है); ( वह ) ( केवल ) ( स्वार्थपूर्ण) संबंध का अभिलाषी (होता है); (वह) धन का लालची (होता है); ( वह ) ( व्यवहार में) ठगने वाला (होता है); (वह) विना विचार किए ( कार्यों को) करने वाला (होता है); (वह) ग्रासक्त चित्तवाला (होता है); (वह) यहाँ पर (समस्याओं के समाधान के लिए) बार-वार शस्त्रों (हिंसा) को ( काम में लेता है) । 27. वास्तव में (अपनी ) बीती हुई आयु को ही देखकर ( मनुष्य व्याकुल होता है), (और) बाद में ( बुढ़ापे में ) उसके (मनोभाव) एक समय ( उसमें ) ( मूर्खतापूर्ण) अवस्था उत्पन्न कर देते हैं । और जिनके साथ ( वह) रहता है, एक समय वे ही आत्मीय [ 23 चयनिका ]
SR No.010767
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1987
Total Pages199
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Grammar, & agam_related_other_literature
File Size5 MB
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