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________________ अत: आवारांग का कयन है कि मनुष्य अपने को परिग्रह ने दर रन्ने (42)। बहुत भी प्राप्त करके वह उसमें ग्रामक्तियुक्त न बने (42) । (viii) आत्रारांग में समतादर्शी (अहं) की पानापालन को कर्तव्य कहा गया है (99)1 कहा है कि कुछ लोग समतादशी की अनाना में भी नत्पन्ना सहित होते हैं, कुछ लोग उसकी आजा में भी पालनी होते हैं। ऐसा नहीं होना त्राहिए (96) । यहाँ यह पूछा जा सकता है कि क्या मनुष्य के द्वारा पाना पालन किए जाने को महत्व देना उनकी स्वतन्त्रता का हनन नहीं है ? उत्तर में कहा जा सकता है कि स्वतन्त्रता का हनन तब होता है जब बुद्धि या नर्क से मुलझाई जाने वाली समस्याओं में भी पाजापालन को महत्व दिया जाए। किन्तु, जहाँ वृद्धि की पहुंच न हो ऐसे आध्यात्मिक रहस्यों के क्षेत्र में प्रात्मानुभवी (समतादी) की मात्रा का पालन ही साधक के लिए यात्म-विकास का माध्यम बन सकता है। संसार को जानने के लिये संशय अनिवार्य है (83), पर समाधि के लिए श्रद्धा अनिवार्य है (92)। इससे भी आगे चलें तो समाधि में पहुंचने के लिये समतादी की पाना में चलना आवश्यक है। संशय से विज्ञान जन्मता है, पर यात्मानुभवी की आना में चलने से ही समाधि-अवस्था तक पहुँचा जा सकता है। अतः प्राचारांग ने अहंन की प्राज्ञा-पालन को कर्तव्य कहकर आध्यात्मिक रहस्यों को जानने के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। (ix) मनुष्य लोक की प्रशंसा प्राप्त करना चाहता है, पर लोक असाधारण कार्यों की बड़ी मुश्किल से प्रशंसा करता है। उसकी पहुँच तो सामान्य कार्यों तक ही होती है। मूल्यों का साधक व्यक्ति असाधारण व्यक्ति होता है, अत: उसको अपने क्रान्तिकारी कार्यों के लिए प्रशंसा मिलना कठिन होता है। प्रशंसा का इच्छुक प्रशंसा न मिलने पर कार्यों को निश्चय ही छोड़ देगा। प्राचारांग ने मनुष्य की इस वृत्ति xvi ] [ आचारांग
SR No.010767
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1987
Total Pages199
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Grammar, & agam_related_other_literature
File Size5 MB
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