SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 62 कोषादिमाणं = ग्रोधादि (को) नया अहंकार को । हणिया नष्ट करके। य= (अ) =सर्वथा। बोरे = वीर । लोनस्स = लोन का लोभ को। पासे - देखता है । रिसरयं = नरक मय को। महंत= प्रचण्ड को । तम्हा= इसलिए । हि = ही । वीरे- वीर । विरतेमुक्त हृया । वयातो-हिंसा को । हिदिज्ज = नष्ट कर देता है। सोतं= प्रवाह को । लहनूयगामी हलका होकर, गमन करने वाला। 63 गंयं (गंथ) 2/1 परिणाय (परिग्गा) संकृ इहज्ज [(हो- (अज्ज)] इह (अ) = यहां, अज्ज (अ) =ग्राज वोरे (वीर) 1/1 वि सोयं (सोय) 21 चरेज्ज (चर) विधि 3/1 नक दते (दंत) 1/1 वि उम्मुग्ग (उम्मुग्ग) मूलगब्द 6/1 लद्धं (ल) संकृ अनि इह (अ) =यहां मारणवेहि (माणव) 3/2 णो (अ) =मत पाणिनी (पाणि) 6/2. पाणे (पाण) 2/2 समारनेज्जासि (तमारभ) व 2/1 सक 63 गंयं = परिग्रह को । परिणाय =जानकर । इहज्ज =यहां, अाज । वीरे = वीर । सोयं =प्रवाह को । परिणाय =जानकर । चरेज्ज व्यवहार करे । दंते = आत्म नियन्त्रित । उम्मुग्गवाहर निकलने के। ल = प्राप्त करके । इह यहां । माणवेहि = मनुष्य होने के कारण । गो= मत । पारिगणं प्राणियों के। पारणे प्राणों की। समारनेज्जाति = हिंसा कर। 64 समयं (समय) 2/1 तत्युवेहाए [(तत्य)+(वेहाए) तत्य (अ) = वहां. उवेहाए (उवेह) संकृ अप्पाणं (अप्पाण) 2:1 विप्पसादए (वि-प्पसाद) विवि 3/1 सक अणण्णपरमं [(अणण्ण) (परम)] [(अणग)-(परम) 1. प्राकृत में विभक्ति जुड़ते समय दीर्घ स्वर वहुवा पद्य में ह्रस्व हो जाते हैं । (पिगल : प्राकृत भापात्रों का व्याकरण, पृष्ठ, 182) 2. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हम प्राकृत व्याकरण : 3-137) 114] [ प्राचारांग
SR No.010767
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1987
Total Pages199
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Grammar, & agam_related_other_literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy