SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ थे, स्वर्ण हीरा, माणिक, मोती आदि के मुकुटादि आभूषण भी अपनी तरफ से चढाये थे और जितना द्रव्य खर्च करने की जरूरत पड़ती थी उतना द्रव्य अपनी तरफसे खर्च करते थे तथा उस समयके सब श्रावक लोग भी भक्तिवश पूजा आरती वगैरह की सब सामग्री अपने २ घरसे मंदिरमें प्रभूकी पूजा के लिये ले जाते थे. और प्रभू की मूर्ति का प्रमार्जन, प्रक्षालन, पूजन आदि सब तरह की सेवा भक्ति अपने अपने हाथोसें ही करते थे इसलिये उस समय जीर्णोद्धारादि कार्यों के लिये स्थाई देव द्रव्य रखने की विशेप कोई भी जरूरत पड़ती नहीं थी अथवा मंदिर बनवाने वाले मंदिर संबंधी सेवा पूजा सार संभाल जीर्णोद्धारादिक सब तरहका खर्च अपनी अपनी तरफसे चलाते थे इसलिये देवद्रव्य की विशेष जरूरत नहीं पडती थी अथवा आगेवान् धनीक (द्रव्यवान् ) श्रावक अपने नगरके और आसपासके सत्र मंदिरोंके खर्चेकी सब तरहकी व्यवस्था अपनी २ तरफसे चलाते थे इसलिये भी उस समय देवद्रव्यकी अभीके जैसी वृद्धि करने की व भंडारादिक में जमा रखनेकी विपेश कोईभी आवश्यकता नहींपडती थी, परंतु जो पूजामें चढाया जाताथा उस देवद्रव्य की मर्यादा से नवीन मंदिर बनाने वगैरहमें व्यवस्था होती थी. इसलिये उस समय चढावा करके देव द्रव्य की वृद्धि करने की कोई भी भावश्यकता नहीं थी. वरदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती, विद्याधर जैसे समर्थ नी राजा महाराजा और आगेवान् धनीक श्रावक होते रहते थे तबतक । परंपरा से ऐसी ही व्यवस्था चली आती थी परंतु जबसे परंपरासे जैनी जा महाराजाओं का अभाव होने लगा और श्रावक लोग भी प्रमादी कर सेवा पूजाके लिये पूजारी वगैरह नोकर रखने लगे, तबसे पूजा व र्णोद्धारादि कार्यों के लिये विषेश स्थाई देवद्रव्य रखने की व्यवस्था ने लगी तब प्रामादिक की जागीर, व्यापार के नफेका विभाग व चढावा रहसे देव द्रव्य की विशेष वृद्धि होने का शुरू हुआ है इसलिये भरत :
SR No.010764
Book TitleDev Dravya ka Shastrartha Sambandhi Patra Vyavahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherMuni Manisagar
Publication Year1922
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy