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________________ कर्मका चमत्कार मोक्षमाला सत्य, शील और सब प्रकारके दान, दयाके होनेपर ही प्रमाण माने जाते हैं । जिसप्रकार सूर्यके विना किरणें दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार दयाके न होनेपर सत्य, शील और दानमेंसे एक भी गुण नहीं रहता ॥ ३॥ जहाँ पुष्पकी एक पँखडीको भी क्लेश होता है, वहाँ प्रवृत्ति करनेकी जिनवरकी आज्ञा नहीं । सब जीवोंके सुखकी इच्छा करना, यही महावीरकी मुख्य शिक्षा है ॥ ४ ॥ यह उपदेश सब दर्शनोंमें है । यह एकांत है, इसका कोई अपवाद नहीं है । सब प्रकारसे जिनभगवानका यही उपदेश है कि विरोध रहित दया ही निर्मल दया है ॥ ५॥ यह संसारसे पार करनेवाला सुंदर मार्ग है, इसे उत्साहसे धारण करके संसारको पार करना चाहिये । यह सकल धर्मका शुभ मूल है, इसके बिना धर्म सदा प्रतिकूल रहता है ॥ ६॥ जो मनुष्य इसे तत्त्वरूपसे पहचानते हैं, वे शाश्वत सुखको प्राप्त करते हैं । राजचन्द्र कहते हैं कि शान्तिनाथ भगवान् करुणासे सिद्ध हुए हैं, यह प्रसिद्ध है ॥ ७॥ ३ कर्मका चमत्कार मैं तुम्हें बहुतसी सामान्य विचित्रतायें कहता हूँ । इनपर विचार करोगे तो तुमको परभवकी श्रद्धा दृढ़ होगी। एक जीव सुंदर पलंगपर पुष्पशय्यामें शयन करता है और एकको फटीहुई गूदड़ी भी नहीं मिलती। एक भाँति भाँतिके भोजनोंसे तृप्त रहता है और एकको काली ज्वारके भी लाले पड़ते हैं । एक अगणित लक्ष्मीका उपभोग करता है और एक फूटी बादामके लिये घर घर भटकता फिरता है । एक मधुर वचनोंसे मनुष्यका मन हरता है और एक अवाचक जैसा होकर रहता है। एक सुंदर वस्त्रालंकारसे विभूषित होकर फिरता है और एकको प्रखर शीतकालमें फटा हुआ कपड़ा भी ओढ़नेको नहीं मिलता। कोई रोगी है और कोई प्रबल है। कोई बुद्धिशाली है और कोई जड़ है। कोई मनोहर नयनवाला है और कोई अंधा है । कोई लूला-लँगड़ा है और किसीके हाथ और पैर रमणीय हैं । कोई कीर्तिमान है और कोई अपयश भोगता है । कोई लाखों अनुचरोंपर हुक्म चलाता है और कोई लाखोंके ताने सहन करता है । किसीको देखकर आनन्द होता है और किसीको देखकर वमन होता है । कोई सम्पूर्ण इन्द्रियोंवाला है और कोई अपूर्ण इन्द्रियोंवाला है। किसीको दीन-दुनियाका लेश भी भान नहीं और किसीके दुखका पार भी नहीं। सत्य शीलने सघळां दान, दया होइने रयां प्रमाण; दया नहीं तो ए नहीं एक, विना सूर्य किरण नहीं देख ॥ ३ ॥ पुष्पपांखडी ज्यां दूभाय जिनवरनी त्यां नहीं आशायः । सर्व जीवन ईच्छो सुख, महावीरकी शिक्षा मुख्य ॥ ४ ॥ सर्व दर्शने ए उपदेश; ए एकांते, नहीं विशेष; सर्व प्रकारे जिननो बोध, दया दया निर्मळ अविरोध ॥ ५॥ ए भवतारक सुंदर राह, धरिये तरिये करी उत्साह धर्म सकळनुं यह शुभ मूळ, ए वण धर्म सदा प्रतिकूळ ॥ ६॥ तस्वरूपथी ए ओळखे, ते जन प्होंचे शाश्वत मुखे, शांतिनाथ भगवान प्रसिख, राजचन्द्र करुणाए सिद्ध ॥ ७॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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