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________________ ८०८ श्रीमद राजचन्द्र 1 कहा कि मुझे इतनी सामर्थ्यका अवधिज्ञान हो गया है कि मैं पाँचसौ योजनतकके रूपी पदार्थको जान सकता हूँ । गौतमस्वामीने इस बातका निषेध किया, और आनन्दको आलोचना करनेको कहा । बादमें दोनों महावीरके पास गये । गौतमको अपनी भूल मालूम हुई और उन्होंने आनन्दसे क्षमा माँगी । आनंदघन आनंदघनजी एक महान् अध्यात्मी योगी पुरुष हो गये हैं। इनका दूसरा नाम लाभानंद था । इन्होंने हिन्दी मिश्रित गुजरातीमें चौबीस जिनभगवान्‌की स्तुतिरूप चौबीस स्तवनोंकी रचना की है, जो आनन्दघनचौबीसीके नामसे प्रसिद्ध है । आनन्दघनजीकी दूसरी सुन्दर रचना आनंदघनबहोत्तरी है । आनंदघनजीकी वाणी बहुत मार्मिक और अनुभवज्ञान परिपूर्ण है । इनकी रचनाओंसे मालूम होता है कि ये जैनसिद्धांत के एक बड़े अनुभवी मर्मज्ञ पंडित थे । आनन्दघनजी गच्छ मत इत्यादिका बहुत विरोध करते थे । इन्होंने षट्दर्शनोंको जिन भगवान्का अंग बताकर छहों दर्शनोंका सुन्दर समन्वय किया है । आनन्दघनजी आत्मानुभवकी मस्त दशामें विचरण किया करते थे । आनन्दघनजीका यशोविजयजीसे मिलाप भी हुआ था, इस बातको यशोविजयजीने अपनी बनाई हुई अष्टपदीमें व्यक्त किया है । राजचन्द्रजी आनन्दघनजीको बहुत सन्मानकी दृष्टिसे देखते हैं । वे उन्हें कुन्दकुन्द और हेमचन्द्राचार्यकी कोटि में लाकर रखते हैं। वे आनन्दघनजीकी हेमचन्द्राचार्यसे तुलना करते हुए लिखते हैं- " श्रीआनंदघनजीने स्वपर - हितबुद्धि से लोकोपकार-प्रवृत्ति आरंभ की। उन्होंने इस मुख्य प्रवृत्तिमें आत्महितको गौण किया । परन्तु वीतरागधर्म - विमुखता - विषमता — इतनी बढ़ गई थी कि लोग धर्मको अथवा आनंदघनजीको पहिचान न सके— समझ न सके । अन्तमें आनंदघनजीको लगा कि प्रबलरूपसे व्याप्त विषमताके योगमें लोकोपकार, परमार्थ- प्रकाश करनेमें असरकारक नहीं होता, और आत्महित गौण होकर उसमें बाधा आती है; इसलिये आत्महितको मुख्य करके उसमें ही प्रवृत्ति करना योग्य है । इस विचारणासे अन्तमें वे लोकसंगको छोड़कर वनमें चल दिये । वनमें विचरते हुए भी वे अप्रगटरूपसे रहकर चौबीस पद आदिके द्वारा लोकोपकार तो कर ही गये हैं । निष्कारण लोकोपकार यह महापुरुषोंका धर्म है । राजचन्द्रजीने आनंदघनचौबीसीका विवेचन भी लिखना आरंभ किया था, जो अंक ६९२ में छपा है । "" ईसामसीह ईसामसीह ईसाईधर्मके आदिसंस्थापक थे । ये कुमारी मरियमके गर्भसे उत्पन्न हुए थे । ईसा बचपन से ही धर्मग्रन्थोंके अध्ययन करनेमें सारा समय बिताया करते थे । ईसाके पूर्व फिलस्तीन 1 और अरब आदि देशोंमें यहूदीधर्मका प्रचार था। यहूदी पादरी लोग धर्मके बहाने जो मनमाने अत्याचार किया करते थे, उनके विरुद्ध ईसामसीहने प्रचण्ड आन्दोलन मचाया । ईसामसीहपर यहूदियोंने खूब आक्रमण किये, जिससे इन्हें जैरुसलेम भाग जाना पड़ा। वहां पर भी इनपर वार किये गये । यहूदियोंने इन्हें पकड़कर बन्दी कर लिया, और इन्हें काँटोंका मुकट पहनाकर स्लीपर लटका दिया । जिस समय इनके हाथों पैरोंमें कीलें ठोकी गई, उस समय भी इनका मुख प्रसन्नतासे खिलता रहा, और ये अपने वध करनेवालोंकी अज्ञानताको क्षमा करनेके लिये परमेश्वर से प्रार्थना
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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