SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 890
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - - ८६५.बढवाण कैम्प, कार्तिक सुदी ५रवि. १९५७ ॐ. वर्तमान दुषमकाल रहता है। मनुष्योंका मन भी दुःषम ही देखनेमें आता है। प्रायः करके परमार्थसे शुष्क अंतःकरणवाले परमार्थका दिखाव करके स्वेच्छासे आचरण करते हैं। ऐसे समयमें किसका संग करना, किसके साथ कितना काम निकालना, किसकी साथ कितना बोलना, और किसकी साथ अपने कितने कार्य महारकामरूप विदित किया जा सकता है-यह सब 1. लक्ष रखनेका समय है। नहीं तो सद मे सब कारण हानिकारक होते हैं। ॐ शान्तिः । " . प.भावातरकरना . ८६६ नम्बई माटुंगा, मंगसिर १९५७ श्रीशांतनुधारसका भी फिरसे विवेचनरूप भाषांतर करना योग्य है, सो करना। .: .. ८६७ बम्बई शिव, मंगासिर वदी १९५७ देवागमनभीयानचापरादिविभूतयः। - मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥ .... स्तुतिकार श्रीसमंतभद्रसूरिको वीतरागदेव मानों कहते हो कि हे समंतभद्र ! इस हमारी अष्ट प्रातिहार्य आदि विभूतिको तू देख-हमारा महत्त्व देख । इसपर, जिस तरह सिंह गुफामेंसे गंभीर पदसे बाहर निकलकर गर्जना करता है, उसी तरह श्रीसमंतभद्रसरि गर्जना करते हुए कहते हैं: । देवताओंका आगमन, आकाशमें विचरण, चामर गादि विभूतिका भोग करना, चामर आदि मबसे ढोला जाना—यह तो मायावी इन्द्रजालिये भी बता सकते है। तेरे पास देवोंका आगमन होता है, अथवा तू अाकाशमें विधरता.. है, अथवा- पामर कर नादि विभूतिका उपभोग करता है, क्या इसलिये तू हमारे मनको महान है। नही नहीं, कमी नहीं। कुछ इसलिये हमारे मनको महान् नहीं । उतनेसे ही तेरा महत्त्व नहीं । ऐसा महल तो मायावी इन्द्रजालिया भी दिखा सकते हैं। तो फिर सदेवका वास्तविक महत्व क्या है। तो कहते हैं कि वीतरागता । इसे • भागे बताते हैं। ये श्रीसमंतभासूरि वि. सं. दूसरी शताब्दिमें एथे। ताम्बर दिगम्बर दोनोंमें एक सरीले सम्मानित है। जननि देवागमस्तोत्र ( उपर काही मति इस स्तोत्रका प्रथम पद है) अथवा भातमीमांसा रची है। तस्वार्थसूत्रके मंगलाचरणको का करते हए यह स्तोत्र (देवागम) लिखा गया है, और उसपर असाली टीका तथा वापसी हजार लोकप्रमाण गंधहस्तिमहाभाष्य टीका रवी गई है। न दिगार प्रन्यों और शिलालेखाम सामी समंतभाको गपदस्ती टीकाका रचयिता माना गया, है उन मयों और विमलादेशी पता लगता है कि समतमरने गंधहस्ती नामकी कोई का बोजार किली थी, परन्तु यह बका उमारवानिक वनावनके उपर नहीं थी, किसी दूसरे दिगम्बरीय सिद्धान्तोंके ऊपर स वातको ५० गरिजाने अपने स्वामी समतमा-प्रेय परिचय' पृ. २१.-२४५ में बासीबा देकर सावित किया है। कायापार पाने को तत्वार्यस्नपर गन्महस्ती टीकाकी प्रशिविरबह की कोई मकान अथवा नाति नहीं है, किमान तत्वावमायकी सदशति दी है। सोमवालीको लागी OF HOM
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy