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________________ ६८३ व्याख्यानसार-प्रभसमाधान] विविध पत्र आदि संग्रह-३३वाँ वर्ष -७९७ ११. मनन करनेसे छाप बैठ जाती है; और निदिध्यासन करनेसे ग्रहण होता है । १२. अधिक श्रवण करनेसे मननशक्ति मंद होती हुई देखनेमें आती है। १३. प्राकृतजन्य अर्थात् लौकिक वाक्य-ज्ञानीका वाक्य नहीं । १४. आत्माके प्रत्येक समय उपयोगयुक्त होनेपर भी, अवकाशकी कमी अथवा कामके बोझेके कारण, उसे आत्मसंबंधी विचार करनेका समय नहीं मिल सकता-ऐसा कहना प्राकृतजन्य लौकिक वचन है । जो खाने पीने सोने इत्यादिका समय मिला और उसे काममें लिया-जब वह भी आत्माके उपयोगके बिना नहीं हुआ तो फिर जो खास सुखकी आवश्यकता है, और जो मनुष्यजन्मका कर्तव्य है, उसमें समय न मिला, इस वचनको ज्ञानी कभी भी सच्चा नहीं मान सकता । इसका अर्थ इतना ही है कि दूसरे इन्द्रिय आदि सुखके काम तो ज़रूरतके लगे हैं, और उसके बिना दुःखी होनेके डरकी कल्पना रहती है; तथा 'आत्मिक सुखके विचारका काम किये बिना अनंतों काल दुःख भोगना पड़ेगा, और अनंत संसारमें भ्रमण करना पड़ेगा'--यह बात ज़रूरी लगती नहीं ! मतलब यह कि इस चैतन्यको कृत्रिम मान रक्खा है, सच्चा नहीं माना।। १५. सम्यग्दृष्टि पुरुष, जिसको किये बिना न चले ऐसे उदयके कारण लोकव्यवहारको निर्दोषरूपसे लज्जित करते हैं । प्रवृत्ति करते जाना चाहिये, उससे शुभाशुभ जैसा होना होगा वैसा होगा, ऐसी दृढ़ मान्यताके साथ, वह ऊपर ऊपरसे ही प्रवृत्ति करता है। १६. दूसरे पदार्थोंके ऊपर उपयोग दें तो आत्माकी शक्ति आविर्भूत होती है । इसलिये सिद्धि लन्धि आदि शंका करने योग्य नहीं। वे जो प्राप्त नहीं होती उसका कारण यह कि आत्मा निरावरण नहीं की जा सकती। यह शक्ति सब सच्ची है। चैतन्यमें चमत्कार चाहिये; उसका शुद्ध रस प्रगट होना चाहिये । ऐसी सिद्धिवाले पुरुष असाताकी साता कर सकते हैं। ऐसा होनेपर भी वे उसकी अपेक्षा नहीं करते । वे वेदन करनेम ही निर्जरा समझते हैं। १७ तुम जीवोंमें उल्लासमान वीर्य अथवा पुरुषार्थ नहीं। तथा जहाँ वीर्य मंद पड़ा वहाँ उपाय नहीं। १८. जब असाताका उदय न हो तब काम कर लेना चाहिये-ऐसा ज्ञानी पुरुषोंने जीवकी असामर्थ्य देखकर कहा है जिससे उसका उदय आनेपर उसकी पार न बसावे । १९. सम्यग्दृष्टि पुरुषको जहाजके कमाण्डरकी तरह पवन विरुद्ध होनेसे जहाजको फिराकर रास्तां बदलना पड़ता है, उससे वे ऐसा समझते हैं कि स्वयं ग्रहण किया हुआ मार्ग सच्चा नहीं। उसी तरह ज्ञानी-पुरुष उदयविशेषके कारण व्यवहारमें भी अंतरात्मदृष्टि नहीं चूकते।। २०. उपाधिमें उपाधि रखनी चाहिये । समाधिमें समाधि रखनी चाहिये । अंग्रेजोंकी तरह कामके समय काम, और आरामके समय आराम करना चाहिये। एक दूसरेको परस्पर मिला न देना चाहिये। २१. व्यवहारमें आत्मकर्तव्य करते रहना चाहिये। सुख दुःख, धनकी प्राप्ति अप्राप्ति यह शुभाशुभ तथा लाभांतरायके उदयके ऊपर आधार रखता है। शुभके उदयकी साथ पहिलेसे अशुभके उदयकी पुस्तक बाँची हो तो शोक नहीं होता। शुभके उदयके समय शत्रु मित्र हो जाता है, और अशुभके उदयके समय मित्र शत्रु हो जाता है। सुख-दुःखका सच्चा कारण कर्म ही है। कार्तिकेयानुप्रेक्षामें कहा है कि कोई मनुष्य कर्ज ने आवे तो उसे कर्ज चुका देनेसे सिरपरसे बोझा कम हो जानेसे
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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