SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 884
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद् राजवन्द्र . [८६३ व्याख्यानमार प्रभसमाधान सिद्धपर्याय पा जाय । आत्मा कभी भी क्रियाके बिना नहीं हो सकती । जबतक योग रहते हैं तबतक आत्मा जो क्रिया करती है वह अपनी वीर्यशक्तिसे ही करती है। क्रिया देखनेमें नहीं आती, परन्तु वह परिणामके ऊपरसे जाननेमें आती है । जैसे खाई हुई खुराक निद्रामें पच जाती है--यह सबेरे उठनेसे मालूम होता है । यदि कोई कहे कि निद्रा अच्छी आई थी, तो यह होनेवाली क्रियाके समझमें आनेसे ही कहा जाता है । उदाहरणके लिये किसीको यदि चालीस बरसकी उम्रमें अंक गिनना आवे, तो इससे यह नहीं कहा जा सकता है कि उससे पहिले अंक थे ही नहीं । इतना ही कहा जायगा कि उसको उसका ज्ञान न था। इसी तरह ज्ञानदर्शनको समझना चाहिये । आत्मामें ज्ञानदर्शन और वीर्य थोदे बहुत भी खुले रहनेसे आत्मा क्रिया प्रवृत्ति कर सकती है । वीर्य हमेशा चलाचल रहा करता है। कर्मग्रंथ बाँचनेसे विशेष स्पष्ट होगा । इतने खुलासासे बहुत लाभ होगा। ३. जीवत्वभाव हमेशा पारिणामिकभावसे है । इससे जीव जीवभावसे परिणमन करता है, और सिद्धत्व क्षायिकभावसे होता है, क्योंकि प्रकृतियोंके क्षय करनेसे ही सिद्धपर्याय मिलती है। १. मोहनीयकर्म औदायिकमावसे होता है। ५. वैश्य लोग कानमात्रारहित अक्षर लिखते हैं; परन्तु अंकोंको कानमात्रारहित नहीं लिखते; उन्हें तो बहुत स्पष्टरूपसे लिखते हैं । उसी तरह कथानुयोगमें ज्ञानियोंने कदाचित् कुछ कानमात्रारहित लिखा हो तो भले ही; परन्तु कर्मप्रकृतिमें तो निश्चित ही अंक लिखे हैं। उसमें जरा भी भेद नहीं आने दिया। (२५) आषाढ वदी ११ रवि. १९५६ ज्ञान, डोरा पिरोई हुई सूईके समान है-ऐसा उत्तराध्ययनसूत्रमें कहा है । जिस तरह डोरा पिरोई हुई सूई खोई नहीं जाती, उसी तरह ज्ञान होनेसे संसारमें धोखा नहीं खाते । (२६) आषाढ वदी १२ सोम. १९५६ १. प्रतिहार तीर्थकरका धर्मराज्यत्व बतानेवाला । प्रतिहार दरबान । २. जिस तरह स्थूल, अल्पस्थूल, उससे भी स्थूल, दूर, दूरसे दूर, उससे भी दूर पदार्थोका ज्ञान होता है, उसी तरह सूक्ष्म, सूक्ष्मसे सूक्ष्म आदिका ज्ञान भी किसीको होना सिद्ध हो सकता है। ३. नन-आत्मनग्न । ४. उपहत मारा गया । अनुपहत नहीं मारा गया। उपष्टंभजन्य आधारभूत । अभिधेय% जो वस्तुधर्मसे कहा जा सके । पाठान्तर-एक पाठकी जगह दूसरा पाठ । अर्थातर कहनेका हेतु बदल जाना । विषय-जो यथायोग्य न हो-फेरफारवाला—कम ज्यादा । आत्मद्रव्य यह सामान्यविशेष उभयात्मक सत्तावाला है । सामान्य चेतनसत्ता दर्शन है । सविशेष चेतनसत्ता ज्ञान है। ५. सत्तासमुद्रूत सम्यक् प्रकारसे सत्ताका उदयभूत होना–प्रकाशित होना, स्फुरित होना-मालूम होना। ६. दर्शन जगत्के किसी भी पदार्थका भेदरूप रसगंधरहित निराकार प्रतिबिम्बत होना, उसका अस्तित्व मालूम होना, निर्विकल्परूपसे कुछ है, इस तरह आरसीकी झलकके समान सामनेके पदार्थको भास होना, दर्शन है। जहाँ विकल्प होता है वहाँ हान होता है। .. ......
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy