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________________ पत्र ८५६, ८५७, ८५८] विविध पत्र आदि संग्रह-३३वाँ वर्ष पभनन्दि, गोम्मटसार, आत्मानुशासन, समयसारमूल इत्यादि परमशांत श्रुतका अध्ययन होता होगा । आत्माके शुद्ध स्वरूपका स्मरण करते हैं । ॐ शान्तिः. ८५६ मोरबी, आषाढ़ सुदी १९५६ १ प्रशमरसनिममं दृष्टियुग्मं प्रसन, वदनकमलमंकः कामिनीसंगशून्यः। करयुगमपि यत्ते शस्त्रसंबंधवंध्यं, तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव ॥ -तेरे दो नेत्र प्रशमरसमें डूबे हुए हैं-परमशांत रसका अनुभव कर रहे हैं । तेरा मुखकमल प्रसन्न है-उसमें प्रसन्नता व्याप रही है। तेरी गोदी स्त्रीके संगसे रहित है। तेरे दोनों हाथ शस्त्रसे रहित हैं, अर्थात् तेरे हाथोंमें शस्त्र नहीं है-इस तरह हे देव ! जगत्में तू ही वीतराग है। . देव कौन ! वीतराग । दर्शनयोग्य मुद्रा कौनसी ! जो वीतरागता सूचन करे ।। २. स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा वैराग्यका उत्तम प्रन्थ है। द्रव्यको-वस्तुको-यथावत् लक्षमें रखकर, इसमें वैराग्यका निरूपण किया है । गतवर्ष मद्रासकी ओर जाना हुआ था । कार्तिकस्वामी इस भूमिमें बहुत विचरे हैं । इस ओरके नग्न, भव्य, ऊँचे और अडोल वृत्तिसे खड़े हुए पहाड़ देखकर, स्वामी कार्तिकेय आदिकी अडोल वैराग्यमय दिगम्बरवृत्ति याद आती थी । नमस्कार हो उन स्वामी कार्तिकेय आदिको! ८५७ मोरबी, श्रावण वदी १ मंगल. १९५६ ॐ. संस्कृतके अभ्यासके योगके संबंधमें लिखा, परन्तु जबतक आत्मा सुद्ध प्रतिज्ञासे प्रवृत्ति न करे तबतक आज्ञा करनी भयंकर है। जिन नियमोंमें अतिचार आदि लगे हों, उनका कृपालु श्रीमुनियोंसे यथाविधि प्रायश्चित्त लेकर आत्मशुद्धि करना उचित है। नहीं तो वह भयंकर तीव्र बंधका हेतु हैं। नियममें स्वेच्छाचारसे प्रवर्तन करनेकी अपेक्षा मरना श्रेयस्कर है-ऐसी महान् पुरुषोंकी आज्ञाका कोई भी विचार नहीं रखा ! तो फिर ऐसा प्रमाद आत्माको भयंकर क्यों न हो ! ८५८ मोरबी, श्रावण वदी ५ बुध. १९५६ ॐ. कदाचित् यदि निवृत्ति-मुख्य स्थलकी स्थितिके उदयका अंतराय प्राप्त हो, तो हे आर्य ! तुम श्रावण वदी ११ से भाद्रपद सुदी १५ तक सदा सविनय परम निवृत्तिको इस तरह सेवन करना कि जिससे समागमवासी मुमुक्षुओंको तुम विशेष उपकारक होओ; और वे सब निवृत्तिभूत सनियमोंका सेवन करते हुए सत्शास्त्र अध्ययन आदिमें एकाग्र हों, यथाशक्ति व्रत नियम गुणके ग्रहण करनेवाले हों। शरीर-प्रकृतिमें सबल आसातनाके उदयसे यदि निवृत्ति-मुख्य स्थलका अंतराय मालूम होगा, तो यहाँसे प्रायः तुम्हारे अध्ययन मनन आदिके लिये योगशास्त्र पुस्तक भेजेंगे, जिसके चार प्रकाश दूसरे मुमान भाईयोंको भी श्रवण करानेसे परम लाभ होना संभव है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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