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________________ श्रीमद् राजवन्द्र [पत्र ८४०, ८४१, ८४२, ८४३ ८४० अहमदाबाद भीमनाथ, वैशाख सुदी ६, १९५६ (१) आज दशा आदिके संबंधमें जो कहा है, और बीजारोपण किया है, उसे खोद मत डालना; वह सफल होगा। (२) एक श्लोक पढ़ते हुए हमें हजारों शास्त्रोंका भान होकर उसमें उपयोग फिर जाता है । (३) 'चतुरांगल हैं दृगसे मिल हैं'–यह आगे जाकर समझमें आवेगा । मोरबी, वैशाख सुदी ८, १९५६ ॐ. भगवद्गीतामें पूर्वापर-विरोध है, उसे देखनेके लिये उसे भेजी है। पूर्वापर-विरोध क्या है, यह अवलोकन करनेसे मालूम होगा । पूर्वापर-अविरोध दर्शन और पूर्वापर-अविरोध वचन तो वीतरागके ही हैं। भगवद्गीताके ऊपर विद्यारण्य स्वामी, ज्ञानेश्वरी आदिकी अनेक भाष्य-टीकायें रची गई हैं। हरेक कोई अपनी अपनी मान्यताओंके ऊपर चले गये हैं। थियासफीवाली टीका जो तुम्हें भेजी है, वह अधिक स्पष्ट है। मणिलाल नभुभाईने (गीताके ऊपर) विवेचनरूप टीका करते हुए बहुत मिश्रण कर दिया हैखिचड़ी बना दी है। विद्वत्ता और ज्ञानको एक नहीं समझना चाहिये-वे एक नहीं है; विद्वत्ता हो सकती है, फिर भी ज्ञान न हो। सच्ची विद्वत्ता तो वह है जो आत्मार्थके लिये हो, जिससे आत्मार्थ सिद्ध हो, आत्मतत्त्व समझमें आवे-वह प्राप्त हो । जहाँ आत्मार्थ होता है वहाँ ज्ञान होता है, वहाँ विद्वत्ता हो भी सकती है नहीं भी। मणिभाई (षड्दर्शनसमुच्चयकी प्रस्तावनामें ) कहते हैं कि " हरिभद्रसूरिको वेदांतकी खबर न थी। यदि उन्हें वेदान्तकी खबर होती तो ऐसी कुशाग्र बुद्धिवाले हरिभद्रसूरि जैनदर्शनकी ओरसे अपनी वृत्तिको फिराकर वेदांती बन जाते"। मणिभाईके ये वचन गाढ मताभिनिवेशसे निकले हैं । हरिभद्रसूरिको वेदांतकी खबर थी या नहीं-इस बातकी, मणिभाईने यदि हरिभद्रसूरिकी धर्मसंग्रहणी देखी होती, तो उन्हें खबर पड़ जाती। हरिभद्रसूरिको वेदांत आदि समस्त दर्शनोंकी खबर थी। उन समस्त दर्शनोंकी पर्यालोचनापूर्वक ही उन्होंने जैनदर्शनकी पूर्वापर-अविरोध प्रतीति की थी। यह अवलोकनसे मालूम पड़ेगा। षड्दर्शनसमुच्चयके भाषांतरमें दोष होनेपर भी मणिभाईने भाषांतर ठीक किया है । यह सुधारा जा सकता है। ८४२ श्रीमोरबी, वैशाख सुदी ९, १९५६ ॐ. वर्तमानकालमें क्षयरोग विशेष बढ़ा है और बढ़ता जाता है, इसका मुख्य कारण ब्रह्मचर्यकी कमी, आलस्य और विषय आदिकी आसक्ति है । क्षयरोगका मुख्य उपाय ब्रह्मचर्य-सेवन, शुद्ध सात्विक आहार-पान और नियमित वर्तन है। ववाणीला, वैशाख १९५६ १. ॐ. यथार्थ ज्ञानदशा, सम्यक्त्वदशा और उपशमदशाको तो, जो यथार्थ मुमुक्षु जीव सत्पुरुषके समागममें आता है, वही जानता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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