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________________ पर ८३७,८३८,८३९] विविध पत्र आदि संग्रह-३३वों वर्ष ७५९ (२) प्रारब्ध और पुरुषार्थ शब्द समझने योग्य हैं । पुरुषार्थ किये बिना प्रारब्धकी खबर नहीं पड़ सकती । जो प्रारब्धमें होगा वह हो रहेगा, यह कहकर बैठे रहनेसे काम नहीं चलता । निष्काम पुरुषार्थ करना चाहिये । प्रारब्धको समपरिणामसे वेदन करना-भोग लेना-यह बड़ा पुरुषार्थ है । सामान्य जीव समपरिणामसे विकल्परहित होकर यदि प्रारब्धका वेदन न कर सके, तो विषम परिणाम आता ही है । इसलिये उसे न होने देनेके लिये-कम होनेके लिये--उद्यम करना चाहिये । समभाव और विकल्परहितभाव सत्संगसे आता और बढ़ता है। ८३७ मोहमयी क्षेत्र, पोष वदी १२ रवि. १९५६ महात्मा मुनिवरोंके चरणकी,-संगको-उपासना और सत्शास्त्रका अध्ययन मुमुक्षुओंकी आत्मबलकी वृद्धिका सदुपाय है। ज्यों ज्यों इद्रिय-निग्रह होता है, ज्यों ज्यों निवृत्तियोग होता है, त्यों त्यों वह सत्समागम और सत्शास्त्र अधिकाधिक उपकारी होता है। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः। ८३८ धर्मपुर, चैत्र वदी १ रवि. १९५६ * धन्य ते मुनिवरा जे चाले समभावे, ज्ञानवंत ज्ञानिशुं मळता तनमनवचने साचा । द्रव्यभाव सुधा जे भाखे साची जिननी वाचा, धन्य ते मुनिवरा जे चाले समभावे ॥ .(२) बाह्य और अंतर समाधियोग रहता है । परम शान्तिः । (३) भावनासिद्धि. ८३९ श्रीधर्मपुर, चैत्र वदी ४ बुध. १९५६ ॐ. समस्त संसारी जीव कर्मवशसे साता और असाताके उदयको अनुभव किया ही करते हैं; उसमें भी मुख्यतया तो असाताका ही उदय अनुभवमें आता है। कचित् अथवा किसी किसी देहसंयोगमें यद्यपि साताका उदय अधिक अनुभवमें आता हुआ मालूम होता है; परन्तु वस्तुतः वहाँ भी अंतर्दाह ही प्रज्वलित हुआ करती है । पूर्णज्ञानी भी जिस असाताका वर्णन कर सकने योग्य वचनयोग धारण नहीं करते, वैसी अनंतानंत असातायें इस जीवको भोगनी हैं; और यदि अभी भी उनके कारणोंका नाश न किया जाय तो वे भोगनी पडेंगी ही, यह सुनिश्चित है-ऐसा जानकर विचारवान उत्तम पुरुष उस अंतर्दाहरूप साता और बाह्याभ्यंतर संकेश-अग्निरूपसे प्रज्वलित असाताका आत्यंतिक * उन मुनिवरौंको धन्य है जो समभावपूर्वक रहते हैं। जो स्वयं शानवंत है, और शानियोंसे मिलते हैं। जिनके मन, वचन और काय सधे हैं तथा जो द्रव्य भाव जो वाणी बोलते हैं, वह जिनमगवान्की सबी वाणी ही है। उन मुनिवरोंको धन्य है जो समभावपूर्वक रहते है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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