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________________ पत्र ८२८, ८२९] विविध पत्र मावि संग्रह-३वाँ वर्ष ७५३ स्वपक्षके मानके लिये संदेह उपस्थित करे, तो वह विषम मार्ग है; इस कारण विचारवान मुनियोंको वहाँ समदर्शी होना ही योग्य है । तुम्हें चित्तमें कोई क्षोभ करना उचित नहीं"। आप ऐसा करेंगे तो हमारी आत्माका, तुम्हारी आत्माका, और धर्मका रक्षण होगा। इस प्रकार जैसे उनकी वृत्तिमें बैठे, वैसे योगमें बातचीत करके समाधान करना, और हालमें जिससे अहमदाबाद क्षेत्रमें स्थिति करना न बने, ऐसा करोगे तो वह आगे चलकर विशेष उपकारका हेतु है । वैसा करते हुए भी यदि किसी भी प्रकारसे....."न मानें तो अहमदाबाद क्षेत्रको भी विहार कर जाना, और संयमके उपयोगमें सावचेत रहकर आचरण करना । तुम अविषम रहना। ८२८ मोहमयी क्षेत्र, कार्तिक सुदी ५ज्ञान पंचमी १९५५ १. परमशांत श्रुतका मनन नित्य नियमपूर्वक करना चाहिये । शान्तिः । २. परम वीतरागोंद्वारा आत्मस्थ किये हुए यथाख्यातचारित्रसे प्रगट हुई असंगताको निरन्तर व्यक्ताव्यक्तरूपसे स्मरण करता हूँ। ३. इस दुःषमकालमें सत्समागमका योग भी अति दुर्लभ है। वहाँ फिर परम सत्संग और परम असंगताका योग कहाँसे बन सकता है ? ४. परमशांत श्रुतके विचारमें इन्द्रियनिग्रहपूर्वक आत्मप्रवृत्ति रखनेमें स्वरूपस्थिरता अपूर्वरूपसे प्रगट होती है। सत्समागमका प्रतिबंध करनेके लिये कोई कहे, तो उस प्रतिबंधको न करनेकी वृत्ति बताना, वह योग्य है-यथार्थ है। तदनुसार वर्तन करना । सत्समागमका प्रतिबंध करना योग्य नहीं । तथा सामान्यरूपसे जिससे ऐसा वर्तन हो कि उनकी साथ समभाव रहे, वैसा हितकारी है। फिर जैसे उस संगमें विशेष आना न हो, ऐसे क्षेत्रमें विचरना योग्य है-जिस क्षेत्रमें आत्मसाधन सुलभतासे हो सके ।......."आर्या आदिको यथाशक्ति जो ऊपर कहा है, वह प्रयत्न करना योग्य है । शान्तिः । ८२९ मोहमयी, कार्तिक सुदी ५, १९५६ ॐ. यह प्रवृत्तिव्यवहार ऐसा है कि जिसमें वृत्तिका यथाशांतभाव रखना असंभव जैसा है । कोई विरला ही ज्ञानी इसमें शांत स्वरूप-नैष्ठिक रह सकता हो, इतना बहुत कठिनतासे बनना संभव है। उसमें अल्प अथवा सामान्य मुमुक्षुवृत्तिके जीव शांत रह सकें, स्वरूपनैष्ठिक रह सकें, ऐसा यथारूप नहीं, परन्तु अमुक अंशसे भी होनेके लिये, जिस कल्याणरूप अवलंबनकी आवश्यकता है, उसका समझमें आना, प्रतीति होना और अमुक स्वभावसे आत्मामें स्थिति होना भी कठिन है। ___यदि वैसा कोई योग बने तो, और जीव यदि शुद्ध नैष्ठिक हो तो, शांतिका मार्ग प्राप्त हो सकता है, यह निश्चय है । प्रमत्त स्वभावका जय करनेके लिये प्रयत्न करना योग्य है। इस संसार-रणभूमिमें दुःषमकालरूप प्रीष्मके उदयके योगका वेदन न करनेकी स्थितिका विरले जीव ही अभ्यास करते हैं। ९५
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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