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________________ मात्मज्ञान और पुरुषार्थ आत्मज्ञान और पुरुषार्य राजचन्द्र जी कहते थे कि धर्म बहुत गुप्त वस्तु है; धर्म बहुत व्यापक है। वह किसी बारेमें रहकर, अमुक वेष अथवा अमुक स्थितिमें रहकर नहीं मिलता-वह तो अंतसंशोधनसे ही प्रास होता है।' शास्त्र में केवल मार्ग कहा है, मर्म नहीं । गुणठाणाओं आदिके भेद केवल समझनेके लिये हैं। निस्तारा तो अनुभवज्ञानसे ही होता है। जिससे आत्माको निजस्वरूपकी प्राप्ति हो, जो धर्म संसार-क्षय करने में बल. वान हो, वही धर्म सबसे उत्तम धर्म है-वही आर्यधर्म है। सब शास्त्रों और सर्व विचारणाओंका उद्देश भी इसीकी प्राप्ति करना है। आत्मापेक्षासे कुनबी, मुसलमान बनिये आदिमें कुछ भी भेद नहीं है। जिसका यह भेद दूर हो गया है, वही शुद्ध है। भेद भासित होना यह अनादिकी भूल है। कुलाचारके अनुसार किसी बातको सचा मान लेना यही कषाय है। जिसे संतोष आया हो, जिसकी कषाय मंद पर गई हो, वही सच्चा भावक है, वही सच्चा जैन, वही सच्चा ब्राह्मण और वही सच्चा वैष्णव है-इत्यादि विचारोसे राजचन्द्रजीका वचनामृत यत्रतत्र भरा पड़ा है। राजचन्द्र कहा करते थे कि जीवने बाह्य वस्तुओंमें वृत्ति कर रखी है। अपने निजस्वरूपको समझे बिना जीव पर पदार्थों को नहीं समझ सकता। भेयकारी निजस्वरूपका ज्ञान जबतक प्रकट नहीं होता तबतक परद्रव्यका चाहे कितना भी शान प्राप्त कर लो, वह किसी भी कामका नहीं। इसलिये राजचन्द्रजी लिखते हैं कि 'आत्मा एक है अथवा अनेक, आदि छोटी छोटी शंकाओंके लिये, आत्मस्वरूपकी प्राप्ति करने में अटक जाना ठीक नहीं है। एक-अनेक आदिका विचार बहुत दूर दशाके पहुँचनेके पश्चात् करना चाहिये। महात्मा बुदकी तरह राजचन्द्रजी कहा करते थे कि जैसे रास्तेमें चलते हुए किसी आदमीके सिरकी पगदी काँटोंमे उलझ जाय, और उसकी मुसाफिरी अभी बाकी रही हो; तो पहिले तो जहाँतक बने उसे कॉौंको हटाना चाहिये किन्तु यदि काँटोको दूर करना संभव न हो तो उसके लिये वहाँ ठहरकर; रातभर वहीं न बिता देना चाहिये, परन्तु पगडीको वहीं छोड़कर आगे बढ़ना चाहिये । उसी तरह छोटी छोटी शंकाओंके लिये आत्मज्ञानकी प्राप्ति, जीवको रुके नहीं रहना चाहिये।' राजचन्द्रजीका कहना था कि लोग इस कालमें केवलशान, क्षायिक समकित आदिका निषेध करते हैं। परन्तु उन बातोंके लिये प्रयत्नशील होते नहीं। यदि उनकी प्राप्तिके लिये जैसा चाहिये वैसा प्रयत्न किया जाय तो निश्रयसे वे गुण प्राप्त हो सकते हैं, इसमें सन्देह नहीं । अंग्रेजोंने उद्यम किया तो कारीगरी तथा राज्य प्राप्त किया, और हिन्दुस्तानवालोंने उद्यम न किया तो वे उसे प्राप्त न कर सके, इससे विद्या (शान) का व्यवच्छद होना नहीं कहा जा सकता। भवस्थिति, पंचमकालमें मोक्षका अभाव आदि शंकाओंसे जीवने बामवृत्ति कर रक्खी है। परन्तु यदि ऐसे जीव पुरुषार्थ करें, और पंचमकाल मोक्ष होते समय हाथ पकड़ने आवे, तो उसका उपाय हम कर लेंगे । वह उपाय कोई हाथी नहीं, अथवा जाज्वल्यमान ममि नहीं । मुफ्तमें ही १ चिदानन्दजीने भी एक जगह कहा है वस्तुस्वभाव धरम सुधी कहत अनुभवी जीव । मूरख कुल आचार• जाणत धरम सदीव ॥ स्वरोदयशान ३७३. २ जैन विद्वान् यशोविजयजीने सथे जैनका लक्षण इस तरह लिखा है: कहत कृपानिषि सम-जल सीले, कर्म-मैल जो घोवे । बहुल पाप-मल अंग न धारे, शुद्ध रूप निज जोवे । परम । स्यावाद पूरन जो जाने नयगर्भित जस वाचा। गुन पर्याय द्रव्य जो बसे, सोई जैन है साचा । तुलना करो न अटा हि न गोतन न जमा होति ब्राह्मणो। यहि सर्वच धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो-धम्मपद बामणवग्गो ११. -अर्थात् जटासे, गोत्रसे और जन्मसे बामग नहीं कहा जाता। जिसमें सत्य और धर्म हो वही शुचि और वही बाबण है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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