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________________ ७३१ ___ ३१ ७७४, ७७५, ७७६, ७७७ ] विविध पत्र आदि संग्रह-३१वाँ वर्ष हे शिथिलता ! तुम क्यों अंतराय करता हो ! . परम अनुग्रह कर अब अनुकूल हो! अनुकूल हो! ७७५ हे सर्वोत्कृष्ट सुखके हेतुभूत सम्यग्दर्शन ! तुझे अत्यंत भक्तिसे नमस्कार हो! इस अनादि अनंत संसारमें अनंतानंत जीव तेरे आश्रय बिना अनंतानंत दुःखका अनुभव करते हैं। तेरे परम अनुग्रहसे निजस्वरूपमें रुचि होकर, परम वीतराग स्वभावके प्रति परम निश्चय हुआ, कृतकृत्य होनेका मार्ग प्रहण हुआ। हे जिनवीतराग ! तुम्हें अत्यंत भक्तिसे नमस्कार करता हूँ। तुमने इस पामरके प्रति अनंतानंत उपकार किया है। हे कुंदकुंद आदि आचार्यों ! तुम्हारे वचन भी निजस्वरूपकी खोज करनेमें इस पामरको परम उपकारी हुए हैं, इसलिये मैं तुम्हें अतिशय भक्तिसे नमस्कार करता हूँ। हे श्रीसोभाग ! तेरे सत्समागमके अनुग्रहसे आत्मदशाका स्मरण हुआ, इसलिये मैं तुझे नमस्कार करता हूँ। ৩৬৪ जिस तरह भगवान् जिनने पदार्थोंका स्वरूप निरूपण किया है, उसी तरह सब पदार्थोंका स्वरूप है । भगवान् जिनके उपदेश किये हुए आत्माके समाधिमार्गको श्रीगुरुके अनुग्रहसे जानकर, उसकी परम प्रयत्नसे उपासना करो। श्रीवसो, आसोज १९५४ ৩৩৩ (१) ठाणांगसूत्रमें नीचे बताया हुआ सूत्र क्या उपकार होनेके लिये लिखा है, उसका विचार करो। *एगे समणे भगवं महावीरे इमीसेणं (इमीए) ओसप्पीणीए चउव्वीसाए तित्ययराणं चरिमतित्ययरे सिद्ध बुद्ध मुत्ते परिनिव्वुडे (जाव) सव्वदुखप्पहीणे। (२) काल कराल ! इस अवसर्पिणी कालमें चौबीस तीर्थकर हुए । उनमें अन्तिम तीर्थकर श्रमण भगवान्महावीर दीक्षित भी अकेले हुए। उन्होंने सिद्धि भी अकेले ही पाई ! परन्तु उनका भी प्रथम उपदेश निष्फल गया! *श्रमण भगवान्महावीर एक है। इस अवसर्पिणी कालमै चौबीस तीर्थंकरों में अन्तिम तीर्थकर है; वे सिद्ध है, खुब है, मुक्त है, परिनिर्वती और उनके सर्व दुःख परिक्षीण हो गये है।-अनुवादक.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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