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________________ ७२१ पत्र ७५३ (३)] विविध पत्र आदि संग्रह-३१वाँ वर्ष इसलिये “ विचरे उदय प्रयोग " ऐसा कहा है । सम्पूर्ण निज अनुभवरूप उनकी वाणी, अज्ञानीकी वाणीसे विलक्षण और एकांत आत्मार्थकी बोधक है, इस कारण उनमें वाणीकी अपूर्वता कही है, जो उनके वचनातिशयको सूचन करता है । वाणीधर्ममें रहनेवाला श्रुत भी उनमें ऐसी सापेक्षतासे रहता है कि जिससे कोई भी नय खंडित न हो; यह उनके परमश्रुत गुणको सूचित करता है; और जिनमें परमश्रुत गुण रहता हैं, वे पूजनीय है, इससे उनके पूजातिशय गुणका सूचन होता है। __ ये श्रीजिन अरिहंत तीर्थंकर, परमसद्गुरुकी भी पहिचान करानेवाले विद्यमान सर्वविरति सद्गुरु हैं, इसलिये मुख्यतया इन सद्गुरुको लक्ष्य करके ही इन लक्षणोंको बताया है। (२) समदर्शिता अर्थात् पदार्थमें इष्टानिष्टबुद्धिरहितपना, इच्छारहितपना और ममत्वरहितपना। समदर्शिता चारित्रदशाका सूचन करती है । राग-द्वेषरहित होना यह चारित्रदशा है । इष्टानिष्टबुद्धि ममत्व और भावाभावका उत्पन्न होना राग-द्वेष है।' यह मुझे प्रिय है, यह मुझे अच्छा लगता है, यह मुझे अप्रिय है, यह मुझे अच्छा नहीं लगता'-ऐसे भाव समदर्शीमें नहीं होते। समदर्शी बाह्य पदार्थोंको और उनकी पर्यायोंको, वे पदार्थ और पर्याय जिस भावसे रहते हैं, उन्हें उसी भावसे देखता है, जानता है और कहता है; परन्तु वह उन पदार्थोंमें अथवा उनकी पर्यायोंमें ममत्व अथवा इष्टानिष्टबुद्धि नहीं करता। आत्माका स्वाभाविक गुण देखना-जानना है, इसलिये वह ज्ञेय पदार्थको देखती जानती है; परन्तु जिस आत्माको समदर्शिता प्रगट हो गई है, वह आत्मा उस पदार्थको देखते जानते हुए भी, उसमें ममत्वबुद्धि, तादाम्यभाव और इष्टानिष्टबुद्धि नहीं करती । विषमदृष्टि आत्माको ही पदार्थमें तादात्म्यवृत्ति होती है-समदृष्टि आत्माको नहीं होती। ___ कोई पदार्थ काला हो तो समदर्शी उसे काला ही देखता जानता और कहता है । कोई पदार्थ सफेद हो तो वह उसे वैसा ही देखता जानता और कहता है। कोई पदार्थ सुगंधित हो तो उसे वह वैसा ही देखता जानता और कहता है; कोई दुर्गधित हो तो उसे वह वैसा ही देखता जानता और कहता है । कोई ऊँचा हो, कोई नीचा हो, तो उसे वह वैसा ही देखता जानता और कहता है । वह सर्पको सर्पकी प्रकृतिरूपसे देखता जानता और कहता है; और बाघको बाघकी प्रकृतिरूपसे देखता जानता और कहता है । इत्यादि प्रकारसे वस्तुमात्र जिस रूपसे जिस भावसे होती है, समदर्शी उसे उसी रूपसे, उसी भावसे देखता जानता और कहता है। वह हेय ( छोड़ने योग्य ) को हेयरूपसे देखता जानता और कहता है; और उपादेय (ग्रहण करने योग्य) को उपादेयरूपसे देखता जानता और कहता है। परन्तु समदर्शी-जीव उन सबमें अपनापन, इष्टानिष्टबुद्धि और राग-द्वेष नहीं करता । सुगंध देखकर वह उसमें प्रियता नहीं करता, दुर्गंध देखकर वह उसमें अप्रियता-दुगुंछा नहीं करता । व्यवहारमें कुछ अच्छा गिना जाता हुआ देखकर, वह ऐसी इच्छाबुद्धि ( राग-रति ) नहीं करता कि यह मुझे मिल जाय तो ठीक है । तथा व्यवहारमें कुछ खराब समझा जाता हुआ देखकर, वह ऐसी अनिच्छाबुद्धि ( द्वेष-अरति ) नहीं करता कि यह मुझे न मिले तो ठीक है । प्राप्त स्थितिमें संयोगमें-अच्छा-बुरा, अनुकुल-प्रतिकूल, इष्टानिष्टबुद्धि, आकुलता व्याकुलता न करते हुए, उसमें समवृतिसे, अर्थात् अपने निज स्वभावसे, रागद्वेष-रहित भावसे रहना ही समदर्शिता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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