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________________ ७५३ व्याख्यानसार ] विविध पत्र आदि संग्रह-३१वाँ वर्ष ७१७ शिथिल-परिणामी होकर मंद पड़ जाता है । इसलिये धीरे धीरे इस बातकी जाँच और परिचय करना चाहिये कि त्याग करते समय परिणाम कैसे शिथिल हो जाते हैं ! . १९६. आँख जीम आदि इन्द्रियोंकी एक एक अंगुल जगह जीतनी भी जिसे मुश्किल हो जाती है, अथवा उसका जीतना असंभव हो जाता है, उसे यदि महान् पराक्रम करनेका अथवा महान् क्षेत्र जीतनेका काम सौंपा हो तो वह किस तरह बन सकता है ! इसलिये जब एकंदम त्याग करनेका समय आवेगा तबकी बात तब रही-इस विचारकी ओर लक्ष रखकर, हालमें तो धीरे धीरे त्यागकी कसरत करनेकी ही ज़रूरत है। उसमें भी प्रथम शरीर और शरीरके. साथ संबंध रखनेवाले संगे. संबंधियोंकी जाँच करनी चाहिये और शरीरमें भी प्रथम आँख जीभ और उपस्थ इन तीन इन्द्रियोंके विषयको देश देशसे त्याग करनेकी ओर लक्ष्य करना चाहिये, और उसके अभ्याससे त्याग एकदम सुगम हो जाता है। १९७. इस समय जाँच करनेके तौरपर अंश अंशसे जितना जितना त्याग करना है, उसमें भी शिथिलता न रखनी चाहिये । तथा रूढीका अनुसरण करके त्याग करना भी ठीक नहीं। जो कुछ त्याग करना वह शिथिलतारहित द्वार-दरवाजेरहित ही करना चाहिये; अथवा यदि कुछ द्वार-दरवाजे रखनेकी जरूरत हो तो उन्हें भी निश्चितरूपमें खुले हुए रखना चाहिये । परन्तु उन्हें इस तरह न रखना चाहिये कि उसका जिस समय जैसा अर्थ करना हो वैसा अर्थ हो सके। जिस समय जिसकी जरूरत पड़े, उस समय उसका अपनी इच्छानुसार अर्थ हो सके, ऐसी व्यवस्था ही त्यागमें न रखनी चाहिये । यदि इस तरहकी व्यवस्था की जाय कि अनिश्चितरूपसे अर्थात् जब जरूर पड़े तब मनघांछित अर्थ हो सके, तो जीव शिथिल-परिणामी होकर त्याग किया हुआ सब कुछ बिगाड़ डालता है। . १९८. यदि अंशसे भी त्याग करना हो तो उसकी पहिलेसे ही निश्चयरूपसे व्याख्या बाँधकर साक्षी रखकर त्याग करना चाहिये तथा त्याग करनेके बाद अपनेको मनवांछित अर्थ नहीं करना चाहिये। १९९. संसारमें परिभ्रमण करानेवाली क्रोध, मान, माया और लोभकी चौकड़ीरूप कषाय है। उसका स्वरूप भी समझना चाहिये । उसमें भी जो अनंतानुबंधी कषाय है वह अनंत संसारमें भटकानेवाली है। उस कषायके क्षय होनेका क्रम सामान्य रीतिसे इस तरह हैं कि पहिले क्रोध, फिर मान, फिर माया और फिर लोभका क्षय होता है; और उसके उदय होनेका क्रम सामान्य रीतिसे इस तरह है कि पहिले मान, और फिर क्रमसे लोभ, माया और क्रोधका उदय होता है। .. २००. इस कषायके असंख्यात भेद हैं । जिस रूपमें कषाय होती है उसी रूपमें जीव संसारपरिभ्रमणके लिये कर्मबंध करता है। कषायोंमें बड़ासे बड़ा बंध अनंतानुबंधी कषायका है। जो अंतर्मुहूर्तमें सत्तर कोडाकोडी सागरकी आयुको बाँधती है, उस अनंतानुबंधीका स्वरूप भी जबर्दस्त है। वह इस तरह कि क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार, मिथ्यात्वमोहरूपी राजाको बराबर सावधानीसे सैन्यके मध्य भागमें रखकर उसकी रक्षा करते हैं, और जिस समय जिसकी जरूरत होती है उस समय वह बिना बुलाये ही मिथ्यात्वमोहनीयकी सेवा बजाने जुट पड़ता है। इसके पश्चात् उसका नोकषायरूप दूसरा परिवार हैं। वह कषायके अप्रभागमें रहकर मिथ्यात्वमोहनीवकी रखवाली करता है परन्तु यह सब रखवाली करते हुए. भी नहीं जैसी कषायका ही काम करता है। भटकाने
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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