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________________ - - - · श्रीमद् राजचन्द्र [७५३ व्यख्यानसार १३. अकामनिर्जरा औदयिक भावसे होती है। इस निर्जराको जीवने अनंतोंबार किया है; और वह कर्म-बंधकी ही कारण है। . १४. सकामनिर्जरा क्षायोपशमिक भावसे होती है। यह कर्मके अबंधका कारण है। जितने अंशोंमें सकामनिर्जरा (क्षायोपशमिक भावसे ) होती है उतने ही अंशोंमें आत्मा प्रगट होती है । यदि अकाम (विपाक ) निर्जरा हो तो वह औदयिक भावसे होती है, और वह कर्म-बंधका कारण है। यहाँ भी कर्मकी निर्जरा तो होती है, परन्तु उससे आत्मा प्रगट नहीं होती। १५. अनंतबार चारित्र प्राप्त करनेसे जो निर्जरा हुई है, वह औदयिक भावसे (जो भाव बंधरहित नहीं है ) ही हुई है; क्षायोपशमिक भावसे नहीं हुई । यदि वह क्षायोपशमिक भावसे हुई होती, तो इस तरह भटकना न पड़ता। १६. मार्ग दो प्रकारके हैं:-एक लौकिक मार्ग और दूसरा लोकोत्तर मार्ग । ये दोनों एक दूसरेसे विरुद्ध हैं। १७. लौकिक मार्गसे विरुद्ध लोकोत्तर मार्गके पालन करनेसे उसका फल लौकिक नहीं होता । जैसा कृत्य होता है वैसा ही उसका फल होता है । १८. इस संसारमें जीवोंकी संख्या अनंत कोटी है । व्यवहार आदि प्रसंगमें अनंत जीव क्रोध आदिसे प्रवृत्ति करते हैं। चक्रवर्ती राजा आदि क्रोध आदि भावोंसे संग्राम करते हैं, और लाखों मनुष्योंका घात करते हैं, तो भी उनमेंसे किसी किसीको तो उसी कालमें मोक्ष हुई है। १९. क्रोध, मान, माया और लोभकी चौकड़ीको कषायके नामसे कहा जाता है । यह कषाय अत्यंत क्रोधादिवाली है । यदि वह अनंत कषाय संसारका कारण होकर अनंतानुबन्धी कषाय होती हो, तो फिर चक्रवर्ती आदिको अनंत संसारकी वृद्धि होनी चाहिए, और इस हिसाबसे तो अनंत संसारके व्यतीत होनेके पहिले उन्हें किस तरह मोक्ष हो सकती है ? यह बात विचारने योग्य है। २०. तथा जिस क्रोध आदिसे अनंत संसारकी वृद्धि हो वही अनंतानुबंधी कषाय है, यह भी निस्सन्देह है । इस हिसाबसे ऊपर कहे हुए क्रोध आदिको अनंतानुबंधी नहीं कहा जा सकता। इसलिये अनंतानुबंधीकी चौकड़ी किसी अन्य प्रकारसे ही होना संभव है। २१. सम्यक्ज्ञान दर्शन और चारित्र इन तीनोंकी एकताको मोक्ष कहते हैं। वह सम्यक्ज्ञान दर्शन चारित्र, वीतरागज्ञान दर्शन चारित्र ही है । उसीसे अनंत संसारसे मुक्ति होती है । यह वीतरागज्ञान कर्मके अबंधका कारण है । वीतरागके मार्गसे चलना अथवा उनकी आज्ञानुसार चलना भी अबंधका ही कारण है । उसके प्रति जो क्रोध आदि कषाय हों उनसे विमुक्त होना, यही अनंत संसारसे अत्यंतरूपसे मुक्त होना है, अर्थात् यही मोक्ष है। जिससे मोक्षसे विपरीत ऐसे अनंत संसारकी वृद्धि होती है, उसे अनंतानुबंधी कहा जाता है; और बात भी ऐसी ही है। वीतरागमार्गसे और उनकी आज्ञानुसार चलनेवालोंका कल्याण होता है; ऐसा जो बहुतसे जीवोंको कल्याणकारी मार्ग है, उसके प्रति क्रोध आदि भाव (जो महा विपरीतताके करनेवाले हैं) ही अनंतानुबंधी कषाय है। - २२. क्रोध आदि भाव लोकमें भी निष्फल नहीं जाते; तथा उनसे वीतरागद्वारा प्ररूपित वीतरागज्ञानका मोक्षधर्मका अथवा सधर्मका खंडन करना, अथवा उनके प्रति तीव्र मंद आदि जैसे
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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