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________________ पत्र ७३७,७३८] विविध पत्र आदि संग्रह-३०वाँ वर्ष (२) निवृत्तिमान भाव–परिणाम-होनेके लिये जीवको निवृत्तिमान द्रव्य क्षेत्र और कालको प्राप्त करना उचित है । शुद्ध बुद्धिसे रहित इस जीवको किसी भी योगसे शुभेच्छा-कल्याण करनेकी इच्छा-प्राप्त हो, और निस्पृह परम पुरुषका योग मिले, तो ही इस जीवको भान आ सकता है। उसके वियोगमें उसे सत्शास्त्र और सदाचारका ही परिचय करना चाहिये-अवश्य करना चाहिये । ७३७ बम्बई, आसोज वदी ७, १९५३ (१) उपरकी भूमिकाओंमें भी अवकाश मिलनेपर अनादि वासनाका संक्रमण हो जाता है, और वह आत्माको बारम्बार आकुल-व्याकुल बना देता है । बारम्बार ऐसा ही हुआ करता है कि अब ऊपरकी भूमिकाकी प्राप्ति होना दुर्लभ ही है; और वर्तमान भूमिकामें भी उस स्थितिका फिरसे होना दुर्लभ है। जब ऊपरकी भूमिकामें भी ऐसे असंख्य अन्तराय-परिणाम होते हैं, तो फिर शुभ इच्छा आदि भूमिकामें वैसा हो, तो यह कुछ आश्चर्यकारक नहीं है। (२) उस अन्तरायसे खेद न पाकर आत्मार्थी जीवको पुरुषार्थ-दृष्टि करनी चाहिये और हिम्मत रखनी चाहिये; हितकारी द्रव्य क्षेत्र आदि योगकी खोज करनी चाहिये; सत्शास्त्रका विशेष परिचय रखकर बारम्बार हठपूर्वक भी मनको सद्विचारमें प्रविष्ट करना चाहिये । तथा मनके दुर्भावसे आकुल-व्याकुल न होकर धैर्यसे सद्विचारके पंथमें जानेका उद्यम करते हुए जय होकर ऊपरकी भूमिकाकी प्राप्ति होती है, और अविक्षेपभाव होता है। ३. योगदृष्टिसमुच्चय बारम्बार अनुप्रेक्षा करने योग्य है। ७३८ बम्बई, आसोज वदी १४ रवि. १९५३ श्रीहरिभदाचार्यने योगदृष्टिसमुच्चय नामक ग्रंथकी संस्कृतमें रचना की है । उन्होंने योगबिन्दु नामके योगके दूसरे ग्रंथको भी बनाया है। हेमचन्द्राचार्यने योगशास्त्र नामक ग्रंथ बनाया है। श्रीहरिभद्रकृत योगदृष्टिसमुच्चयका अनुसरण करके श्रीयशोविजयजीने गुजराती भाषामें स्वाध्यायकी रचना की है। उस ग्रंथमें, शुभेच्छासे लगाकर निर्वाणपर्यंतकी भूमिकाओंमें मुमुक्षु जीवको बारंबार श्रवण करने योग्य विचार करने योग्य और स्थिति करने योग्य आशयसे बोध-तारतम्य तथा चारित्र-स्वभावतारतम्य प्रकाशित किया है। यमसे लगाकर समाधिपर्यंत अष्टांग योगके दो भेद हैं:-एक प्राण भादिका निरोधरूप और दूसरा आत्मस्वभाव परिणामरूप । योगदृष्टिसमुच्चयमें आत्मस्वभाव-परिणामरूप योगका ही मुख्य विषय है। उसका बारम्बार विचार करना चाहिये।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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