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________________ पत्र ७०६,७०७] विविध पत्र आदि संग्रह-३०वाँ वर्ष ६७३ .७०६ ववाणीआ, चैत्र सुदी ६ बुध. १९५३ वेशभूषामें ऊपरकी चटक-मटक न रखते हुए योग्य सादगीसे रहना ही अच्छा है। चटकमटक रखनेसे कोई पाँचसौके वेतनके पाँचसौ एक नहीं कर सकता, और योग्य सादगीसे रहनेसे कोई पाँचसौके चारसौ निन्यानवें नहीं कर सकता । (२) धर्मका लौकिक बड़प्पन, मान-महत्वकी इच्छा, यह धर्मका द्रोहरूप है । धर्मके बहाने अनार्य देशमें जाने अथवा सूत्र आदिके भेजनेका निषेध करनेवाले-नगारा बजाकर निषेध करनेवाले जहाँ अपने मान-महत्व बड़प्पनका सवाल आता है वहाँ, इसी धर्मको ठोकर मारकर, इसी धर्मपर पैर रखकर इसी निषेधका निषेध करते हैं, यह धर्मद्रोह ही है। उन्हें धर्मका महत्त्व तो केवल बहानेरूप है, और स्वार्थसंबंधी मान आदिका सवाल ही मुख्य सवाल है—यह धर्मद्रोह ही है। • वीरचंद गांधीको विलायत भेजने आदिके विषयमें ऐसा ही हुआ है। जब धर्म ही मुख्य रंग हो तब अहोभाग्य है ! (३) प्रयोगके बहाने पशुवध करनेवाला, यदि रोग-दुःख-को दूर करे तो तबकी बात तो तब रही, परन्तु इस समय तो वह बिचारे निरपराधी प्राणियोंको पीड़ा पहुँचाकर अज्ञानतावश कर्मका उपार्जन करता है! पत्रकार भी विवेक-विचारके बिना ही इस कार्यकी पुष्टि करनेके लिये लिख मारते हैं। ७०७ ववाणीआ, चैत्र सुदी १० सोम. १९५३ १. औषध आदि, मिलनेपर, बहुतसे रोग आदिके ऊपर असर करती हैं। क्योंकि उस रोग आदिके हेतुका कुछ कर्म-बंध ही उस तरहका होता है । औषध आदिके निमित्तसे वह पुद्गल विस्तारसे फैलकर अथवा दूर होकर वेदनीयके उदयके निमित्तको छोड़ देता है। यदि उस रोग आदिका उस तरह निवृत्त होने योग्य कर्म-बंध न हो तो उसके ऊपर औषध आदिका असर नहीं होता, अथवा औषध आदि प्राप्त नहीं होती, अथवा औषध मिले भी तो सम्यक् औषध आदि प्राप्त नहीं होती। २. अमुक कर्म-बंध किस प्रकारका है, उसे यथार्थ ज्ञानदृष्टिके बिना जानना कठिन है । अर्थात् औषध आदि व्यवहारकी प्रवृत्तिका एकांतसे निषेध नहीं किया जा सकता । परन्तु यदि अपनी देहके संबंधमें कोई परम आत्म-दृष्टिवाला पुरुष उस तरह आचरण करे, अर्थात् वह औषध आदि ग्रहण न करे तो वह योग्य है। परन्तु दूसरे सामान्य जीव भी यदि उस तरह चलने लगें तो वह एकांतिक हष्टि होनेसे कितनी ही हानि पहुँचानेवाला है। फिर उसमें भी अपने आश्रित जीवोंके प्रति अथवा दूसरे किन्हीं जीवोंके प्रति रोग आदि कारणोंमें उस तरहका उपचार करनेके व्यवहारमें प्रवृत्तिकी जा सकती है, फिर भी यदि कोई उपचार आदिके करनेकी उपेक्षा करे तो वह अनुकंपा-मार्गको छोड़ देना जैसा ही होता है। क्योंकि कोई जीव चाहे कितना ही पीड़ित हो फिर भी यदि उसे दिलासा देने तथा औषध आदि देनेके व्यवहारको न किया जाय, तो वह उसे आर्तध्यानके हेतु होने जैसा हो जाता है । गृहस्थ-व्यवहारमें ऐसी एकांतिक दृष्टि करनेसे बहुत विरोध आता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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