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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [७.. पंचास्तिकाय जो विवक्षासे मूर्त है और चार धातुओंका कारण है, उसे परमाणु समझना चाहिये । वह परिणमन-स्वभावसे युक्त है, स्वयं शब्दरहित है परन्तु शब्दका कारण है ॥ ७५ ॥ स्कंधसे शब्द उत्पन्न होता है । अनंत परमाणुओंके मिलाप (संघात ) के समूहको स्कंध कहते हैं। इन स्कंधोंके परस्पर स्पर्श होनेसे ( संबद्ध होनेसे ) निश्चयसे शब्द उत्पन्न होता है ॥७६॥ वह परमाणु नित्य है, अपने रूप आदि गुणोंको अवकाश (आश्रय ) प्रदान करता है, स्वयं एकप्रदेशी होनेसे एक प्रदेश के बाद अवकाशको प्राप्त नहीं होता, दूसरे द्रव्यको (आकाशकी तरह) अवकाश प्रदान नहीं करता, स्कंधके भेदका कारण है, स्कंधके खंडका कारण है, स्कंधका कर्ता है और कालके परिमाण (माप) और संख्या (गणना) का हेतु है ॥ ७७॥ ___ जो एक रस, एक वर्ण, एक गंध और दो स्पर्शसे युक्त है, शब्दकी उत्पत्तिका कारण है, एक प्रदेशात्मक शब्दरहित है, जिसका स्कंधरूप परिणमन होनेपर भी जो उससे भिन्न है, उसे परमाणु समझना चाहिये ॥ ७८॥ जो इन्द्रियोंद्वारा उपभोग्य हैं, तथा काया मन और कर्म आदि जो जो अनंत अमूर्त पदार्थ हैं, उन सबको पुद्गलद्रव्य समझना चाहिये ॥ ७९ ॥ धर्मास्तिकाय द्रव्य अरस, अवर्ण, अगंध, अशब्द और अस्पर्श है, सकल लोक-प्रमाण है, तथा अखंड, विस्तीर्ण और असंख्यात प्रदेशात्मक है ॥ ८०॥ वह निरंतर अनंत अगुरुलघु गुणरूपसे परिणमन करता है, गति-क्रियायुक्त पदार्थोको कारणभूत है, स्वयं कार्यरहित है, अर्थात् वह द्रव्य किसीसे भी उत्पन्न नहीं होता ॥ ८१॥ जिस तरह मछलीको गमन करनेमें जल. उपकारक होता है, उसी तरह जो जीव और पुद्गल द्रव्यकी गतिका उपकार करता है, उसे धर्मास्तिकाय समझना चाहिये ॥ ८२॥ जैसे धर्मास्तिकाय द्रव्य है, उसी तरह अधर्मास्तिकाय भी स्वतंत्र द्रव्य है । वह पृथ्वीकी तरह स्थिति-क्रियायुक्त जीव और पुद्गलको कारणभूत है ॥ ८३ ॥ . धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायसे लोक अलोकका विभाग होता है। ये धर्म और अधर्म द्रव्य अपने अपने प्रदेशोंकी अपेक्षा जुदे जुदे हैं, स्वयं हलन-चलन क्रियासे रहित हैं, और लोकप्रमाण हैं ॥ ८४ ॥ धर्मास्तिकाय कुछ जीव और पुद्गलको स्वयं चलाता है, यह बात नहीं है । परन्तु जीव पुद्गल स्वयं ही गति करते हैं, वह उन्हें केवल सहायकमात्र होता है ॥ ८५॥ जो सब जीवोंको और शेष पुद्गलोंको सम्पूर्ण अवकाश प्रदान करता है, उसे लोकांकाश कहते हैं ॥ ८६ ॥ जीव, पुद्गलसमूह, धर्म और अधर्मद्रव्य लोकसे अभिन्न हैं, अर्थात् वे. लोकमें ही है-लोकके बाहर नहीं हैं । आकाश लोकसे भी बाहर है, और वह अनंत है, उसे अलोक कहते हैं ॥ ८७॥ .. यदि आकाश गमन और स्थितिका कारण होता, तो धर्म और अधर्म द्रव्यके अभावके कारण सिद्धभगवान्का अलोकमें भी गमन हो जाता ॥ ८८॥ इस कारण सर्वज्ञ वीतरागदेवने सिद्धमगवान्का स्थान उर्चलोकके अंतमें बताया है। इस कारण भाकाशको गमन और खानका कारण नहीं समझना चाहिये । ८९... IN
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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