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________________ ७... पंचास्तिकाय ] विविध पत्र मावि.संग्रह-३०वाँ वर्ष ७००. ॐ सर्वज्ञाय नमः, नमः सद्गुरवे. पंचास्तिकाय शत इन्द्रोंद्वारा वन्दनीय, तीनों लोकोंको कल्याणकारी, मधुर और निर्मल जिनके वाक्य हैं, अनंत जिनके गुण हैं, संसारको जिन्होंने जीत लिया है, ऐसे सर्वज्ञ वीतरागको नमस्कार है ॥ १॥ जीवको चारों गतियोंसे मुक्त करके निर्वाण प्राप्त करनेवाले ऐसे आगमको नमस्कार कर, सर्वज्ञ महामुनिके मुखसे उत्पन्न अमृतरूप इस शास्त्रको कहता हूँ; उसे श्रवण करो ॥२॥ - पाँच अस्तिकायोंके समूहरूप अर्थ-समयको सर्वज्ञ वीतरागदेवने लोक कहा है । उसके पश्चात् अनंत आकाशरूप मात्र अलोक ही अलोक है ॥ ३॥ ' जीव, पुद्गलसमूह, धर्म, अधर्म तथा आकाश ये पदार्थ नियमसे अपने अस्तित्वमें ही रहते हैं, ये अपनी सत्तासे अभिन्न है, और अनेक प्रदेशात्मक हैं ॥ ४ ॥ अनेक गुण और पर्यायोंसे सहित जिसका अस्तित्व-स्वभाव है उसे अस्तिकाय कहते हैं, उससे त्रैलोक्य उत्पन्न होता है ॥ ५॥ ये अस्तिकाय तीनों कालमें भावरूपसे परिणमन करते हैं। तथा इनमें परिवर्तन लक्षणवाले कालद्रव्यके मिला देनेसे छह द्रव्य हो जाते हैं ॥६॥ ये द्रव्य एक दूसरेमें प्रवेश करते हैं, एक दूसरेको अवकाश देते हैं, परस्पर मिल जाते हैं, और फिर जुदा हो जाते हैं, परन्तु फिर भी वे अपने अपने स्वभावका त्याग नहीं करते ॥ ७ ॥ सत्तास्वरूपसे समस्त पदार्थ एकरूप हैं । वह सत्ता अनंत प्रकारके स्वभाववाली है, वह उत्पाद व्यय ध्रौव्यसे युक्त है और सामान्य-विशेषात्मक है ॥ ८॥ द्रव्यका लक्षण सत् है; वह उत्पाद व्यय और धौव्यसे युक्त है; गुण-पर्यायका आश्रयभूत हैऐसा सर्वज्ञदेवने कहा है ॥९॥ द्रव्यकी उत्पत्ति और विनाश नहीं होते । उसका स्वभाव ही 'अस्ति ' है । उत्पाद व्यय और ध्रौव्य, उसकी पर्यायको लेकर ही होते हैं ॥ १० ॥ द्रव्य अपनी स्वकीय पर्यायोंको प्राप्त होता है-उस उस भावसे परिणमन करता है इसलिये उसे द्रव्य कहते हैं, वह अपनी सत्तासे अभिन्न है ॥ ११॥ पर्यायसे रहित द्रव्य नहीं होता, और द्रव्यरहित पर्याय नहीं होती–दोनों ही अनन्यभावसे रहते हैं, ऐसा महामुनियोंने कहा है ॥ १२ ॥ . - द्रव्यके बिना गुण नहीं होते, और गुणोंके बिना द्रव्य नहीं होते-इस कारण दोनोंका (द्रव्य और गुणका ) स्वरूप अभिन्न है ॥ १३ ॥ स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्ति नास्ति; स्यात् अवक्तव्य, स्यात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य, स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य-इन विवक्षाओंको लेकर द्रव्यके सात भंग होते है॥१४॥ .
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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