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________________ ६९५,६९४] विविध पत्र मादि संग्रह-३०वाँ वर्ष ६४१ हे ज्ञातपुत्र भगवन् ! कालकी बलिहारी है ! इस भारतके पुण्यहीन मनुष्योंकों तेरा सत्य अखंड और पूर्वापर विरोधरहित शासन कहाँसे प्राप्त हो सकता है ! उसके प्राप्त होनेमें इस प्रकारके विघ्न उपस्थित हुए हैं:-तेरे उपदेश दिये हुए शास्त्रों की कल्पित अर्थसे विराधना की; कितनोंका तो समूल ही खंडन कर दिया; ध्यानका कार्य और स्वरूपका कारणरूप जो तेरी प्रतिमा है, उससे कटाक्षष्टिसे लाखों लोग फिर गये; और तेरे बादमें परंपरासे जो आचार्य पुरुष हुए उनके वचनोंमें और तेरे वचनोंमें भी शंका डाल दी-एकान्तका उपयोग करके तेरे शासनकी निन्दा की। हे शासन देवि ! कुछ ऐसी सहायता कर कि जिससे मैं दूसरोंको कल्याण-मार्गका बोध कर सकूँउसका प्रदर्शन कर सकूँ उसे सच्चे पुरुष प्रदर्शित कर सकें। सर्वोत्तम निर्ग्रन्थ प्रवचनके बोधकी ओर फिराकर उन्हें इन आत्म-विरोधक पंथोंसे पीछे खींचने में सहायता प्रदान कर ! समाधि और बोधिमें सहायता करना तेरा धर्म है। ६९४ ॐ नमः 'अनंत प्रकारके शारीरिक और मानसिक दुःखोंसे आकुल व्याकुल जीवोंकी, उन दुःखोंसे छूटनेकी बहुत बहुत प्रकारसे इच्छा होनेपर भी वे उनमेंसे मुक्त नहीं हो सकते-इसका क्या कारण है ! ' यह प्रश्न अनेक जीवोंको हुआ करता है, परन्तु उसका यथार्थ समाधान तो किसी विरले जीवको ही होता है । जबतक दुःखके मूल कारणको यथार्थरूपसे न जाना हो, तबतक उसके दूर करनेके लिये चाहे कितना भी प्रयत्न क्यों न किया जाय, तो भी दुःखका क्षय नहीं हो सकता; और उस दुःखके प्रति चाहे कितनी भी अहाच अप्रियता और अनिच्छा क्यों न हो, तो भी उन्हें वह अनुभव करना ही पड़ता है । ___ अवास्तविक उपायसे यदि उस दुःखके दूर करनेका प्रयत्न किया जाय, और उस प्रयत्नके असह्य परिश्रमपूर्वक करनेपर भी, उस दुःखके दूर न होनेसे, दुःख दूर करनेकी इच्छा करनेवाले मुमुक्षुको अत्यंत व्यामोह हो आता है, अथवा हुआ करता है कि इसका क्या कारण है ! यह दुःख क्यों दूर नहीं होता ! किसी भी तरह मुझे उस दुःखकी प्राप्ति इष्ट न होनेपर भी, स्वप्नमें भी उसके प्रति कुछ भी वृत्ति न होनेपर भी, उसकी ही प्राप्ति हुआ करती है, और मैं जो जो प्रयत्न करता हूँ उन सबके निष्फल हो जानेसे मैं दुःखका ही अनुभव किया करता हूँ, इसका क्या कारण है ! क्या यह दुःख किसीका भी दूर नहीं होता होगा ! क्या दुःखी होना ही जीवका स्वभाव होगा ! क्या कोई जगत्का कर्ता ईघर होगा, जिसने इसी तरह करना योग्य समझा होगा ! क्या यह बात भवितव्यताके आधीन होगी ! अथवा यह कुछ मेरे पूर्वमें किये हुए अपराधोंका फल होगा! इत्यादि अनेक प्रकारके विकल्पोंको मनसहित देहधारी जीव किया करते हैं; और जो जीव मनसे रहित है वे अव्यक्तरूपसे दुःखका अनुभव करते हैं, और वे अन्यक्तरूपसे ही उन दुःखोंके दूर हो जानेकी इच्छा किया करते हैं।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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