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________________ श्रीमद् राजचन्द्र . [६९२ आनन्दधन चौबीसी-विवेचन भोग करें, ऐसा कुछ नियम नहीं है । अर्थात् जिस पतिका वियोग हो गया, और जिसका संयोग भी अब संभव नहीं रहा, ऐसे पतिका जो मिलाप है उसे मैंने मिथ्या समझा है, क्योंकि उसका नाम ठिकाना कुछ नहीं है। अथवा प्रथम पदका यह अर्थ भी होता है:-परमेश्वररूप पतिकी प्राप्तिके लिये कोई काष्ठका भक्षण करता है, अर्थात् पंचाग्निकी धूनी जलाकर उसमें काष्ठ होमकर, कोई उस अग्निका परिषह सहन करता है, और इससे ऐसा समझता है हम परमेश्वररूप पतिको पा लेंगे, परन्तु यह समझना मिथ्या है । क्योंकि उसकी तो पंचाग्नि तपने में ही प्रवृत्ति रहती है। वह उस पतिका स्वरूप जानकर, उस पतिके प्रसन्न होनेके कारणोंको जानकर, कुछ उन कारणोंकी उपासना नहीं करता, इसलिये फिर वह परमेश्वररूप पतिको कहाँसे पायेगा ? वह तो, उसकी मतिका जिस स्वभावमें परिणमन हुआ है, वैसी ही गतिको पावेगा, इस कारण उस मिलापका कोई भी नाम ठिकाना नहीं है ॥ २ ॥ हे सखि ! कोई पतिको रिझानेके लिये अनेक प्रकारके तप करता है, परन्तु वह केवल शरीरको ही संताप देता है । इसे मैंने पतिके प्रसन्न करनेका मार्ग नहीं समझा । पतिके रंजन करनेके लिये तो दोनोंकी धातुओंका मिलाप होना चाहिये । कोई स्त्री चाहे कितने ही कष्टसे तपश्चर्या करके अपने पतिके रिझानेकी इच्छा करे, तो भी जबतक वह स्त्री अपनी प्रकृतिको पतिकी प्रकृतिके स्वभावानुसार न कर सके, तबतक प्रकृतिकी प्रतिकूलताके कारण वह पति कभी भी प्रसन्न नहीं होता, और उस स्त्रीको मात्र अपने शरीरमें ही क्षुधा आदि संतापकी प्राप्ति होती है। . इसी तरह किसी मुमुक्षुकी वृत्ति भगवान्को पतिरूपसे प्राप्त करनेकी हो तो वह यदि भगवान्के स्वरूपके अनुसार वृत्ति न करे, और अन्य स्वरूपमें रुचिमान होते हुए, अनेक प्रकारका तप करके कष्टका सेवन करे, तो भी वह भगवान्को प्राप्त नहीं कर सकता। क्योंकि जिस तरह पति-पत्नीका सच्चा मिलाप और सच्ची प्रसन्नता धातुके एकत्वमें ही है, उसी तरह हे सखि ! भगवान्में इस वृत्तिका पतित्व स्थापन करके उसे यदि अचल रखना हो, तो उस भगवान्की साथ धातु-मिलाप करना ही योग्य है । अर्थात् उत भगवान्ने जो शुद्धचैतन्य-धातुरूपसे परिणमन किया है, वैसी शुद्धचैतन्यवृत्ति करनेसे ही उस धातुमेंसे प्रतिकूल स्वभावके निवृत्त होनेसे ऐक्य होना संभव है; और उसी धातुके मिलापसे उस भगवान्रूप पतिकी प्राप्तिका कभी भी वियोग नहीं होगा ॥३॥ हे सखि ! कोई फिर ऐसा कहता है कि यह जगत् ऐसे भगवान्की लीला है कि जिसके स्वरूपकी पहिचान करनेका लक्ष ही नहीं हो सकता; और वह अलक्ष भगवान् सबकी इच्छा पूर्ण करता है, इस कारण वह इस जगत्को भगवान्की लीला मानकर, उस स्वरूपसे उस भगवान्की महिमाके गान करने में ही अपनी इच्छा पूर्ण होगी-भगवान् प्रसन्न होकर उसमें संलग्नता करेंगे-ऐसा मानता है। परन्तु यह मिथ्या है। क्योंकि वह भगवान्के स्वरूपका ज्ञान न होनेसे ही ऐसा कहता है। जो भगवान् अनंत ज्ञान-दर्शनमय सर्वोत्कृष्ट सुख समाधिमय है, वह भगवान् इस जगत्का कर्ता किस तरह हो सकता है ! और उसकी लीलाके कारण प्रवृत्ति किस तरह हो सकती है ! लीलाकी प्रवृत्ति तो सदोषमें ही संभव है। जो पूर्ण होता है वह तो कुछ भी इच्छा नहीं करता । तथा भगवान्
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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