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________________ . पत्र ६८८,६८९,६९०] . विविध पत्र आदि संग्रह-३०वाँ वर्ष . * कर्म मोहिनी भेद बे, दर्शन चारित्र नाम । . हणे बोध वीतरागता, अचूक उपाय आम || ॐ शान्तिः । Ecc ववाणीआ, फाल्गुन वदी ११, १९५३ (१) कर्मग्रंथ विचारनेसे कषाय आदिका बहुतसा स्वरूप यथार्थ समझमें नहीं आता; उसे विशेष अनुप्रेक्षासे, त्याग-वृत्तिके बलसे, समागममें समझना योग्य है। (२) ज्ञानका फल विरति है । वीतरागका यह वचन सब मुमुक्षुओंको नित्य स्मरणमें रखना योग्य है । जिसके बाँचनेसे, समझनेसे और विचारनेसे आत्मा विभावसे, विभावके कार्योसे, और विभा के परिणामसे उदास न हुई, विभावकी त्यागी न हुई, विभावके कार्योंकी और विभावके फलकी त्यागी न हुई-उसका बाँचना, विचारना और उसका समझना अज्ञान ही है। विचारवृत्तिके साथ त्यागवृत्तिको उत्पन्न करना यही विचार सफल है-यह कहनेका ही ज्ञानीका परमार्थ है । (३) समयका अवकाश प्राप्त करके नियमित रीतिसे दोसे चार घड़ीतक हालमें मुनियोंको शांत और विरक्त चित्तसे सूयगड़ांग सूत्रका विचारना योग्य है। ६८९ ववाणीआ, फाल्गुन वदी ११, १९५३ ॐ नमः सर्वज्ञाय आत्मसिद्धिमें कहे हुए समकितके भेदोंका विशेष अर्थ जाननेकी जिज्ञासाका पत्र मिला है। १. आत्मसिद्धिमें तीन प्रकारके समाकतका उपदेश किया है: (१) आप्तपुरुषके वचनकी प्रतीतिरूप, आज्ञाकी अपूर्व रुचिरूप, स्वच्छंद निरोध भावसे आप्तपुरुषकी भक्तिरूप-यह प्रथम समकित है। (२) परमार्थकी स्पष्ट अनुभवांशसे प्रतीति होना, यह दूसरे प्रकारका समकित है। (३) निर्विकल्प परमार्थ अनुभव, यह तीसरे प्रकारका समकित है । पहिला समकित दूसरे समकितका कारण है । दूसरा तीसरेका कारण है। ये तीनों ही समाकित वीतराग पुरुषने मान्य किये हैं । तीनों समकित उपासना करने योग्य हैं-सत्कार करने योग्य हैं-भक्ति करने योग्य हैं। २. केवलज्ञानके उत्पन्न होनेके अंतिम समयतक वीतरागने सत्पुरुषके वचनोंका अवलंबन लेना कहा है। अर्थात् बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानतक श्रुतज्ञानसे आत्माके अनुभवको निर्मल करते करते, उस निर्मलताकी सम्पूर्णता प्राप्त होनेपर केवलज्ञान उत्पन्न होता है । उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयतक सत्पुरुषका उपदेश किया हुआ मार्ग आधारभूत है-यह जो कहा है, वह निस्सन्देह सत्य है। लेश्या:-जीवके कृष्ण आदि द्रव्यकी तरह भासमान परिणाम । * भात्मसिद्धि १०३।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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