SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 703
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मात्मलिविं कठिन है । क्योंकि वैसे बहुतसे भेद हैं; और इस दोषके कारण भी मोक्षका उपाय प्राप्त होने योग्य दिखाई नहीं देता। तेथी एम जणाय छ, मळे न मोक्ष-उपाय । जीवादि जाण्यातणो, शो उपकार ज थाय ॥ ९५ ॥ इससे ऐसा मालूम होता है कि मोक्षका उपाय प्राप्त नहीं हो सकता । इसलिये जीव आदिका स्वरूप जाननेसे भी क्या उपकार हो सकता है ! अर्थात् जिस पदके लिये इसके जाननेकी आवश्यकता है, उस पदका उपाय प्राप्त होना असंभव दिखाई देता है। पाचे उत्तरथी ययुं, समाधान सर्वोग । समजुं मोक्ष-उपाय तो, उदय उदय सद्भाग (ग्य)॥९६॥ . - आपने जो पाँच उत्तर कहे हैं, उनसे मेरी शंकाओंका साग--सम्पूर्ण रूपसे-समाधान हो गया है । परन्तु यदि मैं मोक्षका उपाय समझ तो मुझे सद्भाग्यका उदय-अति उदय-हो। ( यहाँ ' उदय' 'उदय' शब्द जो दो बार कहा है, वह पाँच उत्तरोंके समाधानसे होनेवाली मोक्षपदकी जिज्ञासाकी तीव्रता दिखाता है)। समाधान-सद्गुरु उवाच:सद्गुरु समाधान करते हैं कि मोक्षका उपाय है: पाचे उत्तरनी थई, आत्मा विषे प्रतीत । थाशे मोक्षोपायनी, सहज प्रतीत ए रीत ॥ ९७ ॥ जिस तरह तेरी आत्मामें पाँच उत्तरोंकी प्रतीति हुई है, इसी तरह मोक्षके उपायकी भी तुझे सहज ही प्रतीति हो जायगी। ___ यहाँ 'होगी' और ' सहज ' ये दो शब्द जो सद्गुरुने कहे हैं, वे इसलिये कहें हैं कि जिसे पाँचों पदोंकी शंका निवृत्त हो गई है, उसे मोक्षका उपाय समझाना कुछ भी कठिन नही है; तथा उससे शिष्यकी विशेष जिज्ञासा-वृत्तिके कारण उसे अवश्य मोक्षोपायका लाभ होगा-यह सद्गुरुके वचनका आशय है। कर्मभाव अज्ञान छ, मोक्षभाव निजवास । अंधकार अज्ञान सम, नाशे ज्ञानप्रकाश ॥ ९८॥ जो कर्मभाव है वही जीवका अज्ञान है, और जो मोक्षभाव है वही जीवका निज स्वरूपमें स्थित होना है । अज्ञानका स्वभाव अंधकारके समान है । इस कारण जिस तरह प्रकाश होनेपर दीर्घकालीन अंधकार होनेपर भी नाश हो जाता है, उसी तरह ज्ञानका प्रकाश होनेपर अज्ञान भी नष्ट हो जाता है। . जे जे कारण पंधना, तेह बंधनो पंथ । • ते कारण छेदक दशा, मोक्षपंय भवअंत ॥ ९९ ॥ . : जो जो कर्म-बंधके कारण हैं, वे सब कर्म-बंधके मार्ग हैं; और उन सब कारणोंका छेदन करनेवाली जो दशा है वही मोक्षका मार्ग है-भवका अंत है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy