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________________ ६१३ मात्मसिदि. ते ते भोग्य विशेषना, स्थानक द्रव्य स्वभाव । गहन बात छे शिष्य आ, कही संक्षेपे साव ॥८६॥ उत्कृष्ट शुभ अध्यवसाय उत्कृष्ट शुभ गति है, और उत्कृष्ट अशुभ अध्यवसाय उत्कृष्ट अशुभ गति है, शुभाशुभ अध्यवसाय मिश्र गति है; अर्थात् उस जीवके परिणामको ही मुख्यरूपसे गति कहा गया है। फिर भी उत्कृष्ट शुभ द्रव्यका उर्ध्वगमन, उत्कृष्ट अशुभ द्रव्यका अधोगमन, शुभ-अशुभकी मध्यस्थिति, इस तरह द्रव्यका विशेष स्वभाव होता है। तथा उन उन कारणोंसे वैसे ही भोग्यस्थान भी होने चाहिये । हे शिष्य ! इसमें जड़-चेतनके स्वभाव संयोग आदि सूक्ष्म स्वरूपका बहुतसा विचार समा जाता है, इसलिये यह बात गहन है, तो भी उसे अत्यंत संक्षेपमें कही है। शंका:-यदि ईश्वर कर्मका फल देनेवाला न हो अथवा उसे जगत्का की न मानें, तो कर्मके भोगनेके विशेष स्थानक-नरक आदि गति आदि स्थान-कहाँसे हो सकते हैं ! क्योंकि उसमें तो ईश्वरके कर्तृत्वकी आवश्यकता है। समाधानः-मुख्यरूपसे तो उत्कृष्ट शुभ अध्यवसाय ही उत्कृष्ट देवलोक है, उत्कृष्ट अशुभ अध्यवसाय ही उत्कृष्ट नरक है, शुभ-अशुभ अध्यवसाय ही मनुष्य-तियंच आदि गतियाँ हैं; तथा स्थानविशेष-अर्चलोकमें देवगति-इत्यादि जो भेद हैं, वे भी जीवोंके कर्मद्रव्यके परिणाम-विशेष ही हैं। अर्थात् वे सब गतियाँ जीवके कर्मके परिणाम-विशेष आदिसे ही संभव हैं। ___ यह बात बहुत गहन है। क्योंकि अचिन्त्य जीव-वीर्य और अचिन्त्य पुद्गल-सामर्थ्यके संयोगविशेषसे लोकका परिणमन होता है । उसका विचार करनेके लिये उसे अधिक विस्तारसे कहना चाहिये । परन्तु यहाँ तो मुख्यरूपसे आत्मा कर्मका भोक्ता है, इतना लक्ष करानेका अभिप्राय होनेसे ही इस कयनको अत्यंत संक्षेपसे कहा है। ५ शंका-शिष्य उवाच:शिष्य कहता है कि जीवको उस कर्मसे मोक्ष नहीं है: कर्चा भोक्ता जीव हो, पण तेनो नहीं मोक्ष । बीत्यो काल अनंत पण, वर्चमान छे दोष ॥ ८७॥ जीव कर्ता और भोक्ता भले ही हो, परन्तु उससे उसका मोक्ष हो सकता है, यह बात नहीं है। क्योंकि अनंतकाल बीत गया तो भी अभी जीवमें कर्म करनेरूप दोष विद्यमान हैं ही। शुभ करे फळ भोगवे, देवादि गति माय । अशुभ करे नरकादि फळ, कर्मरहित न क्याय ॥ ८८॥ यदि जीव शुभ कर्म करे तो उससे वह देव आदि गतिमें उसके शुभ फलका भोग करता है, और यदि अशुभ कर्म करे तो यह नरक भादि गतिमें उसके अशुभ फलका भोग करता है, परन्तु किसी भी जगह जीव कर्मरहित नहीं होता। समाधान सदर ग्वार सदगुरु समाधान करते हैं कि उस कर्मसे जीवको मोक्ष हो सकती है:
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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