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________________ भीमद् राजचन्द्र [१६. नहीं है । जं समंति पासह मोणति पासह–जहाँ समकित अर्थात् आत्मज्ञान है वहीं मुनिपना समझो, ऐसा आचारांगसूत्रमें कहा है । अर्थात् आत्मार्थी जीव ऐसा समझता है कि जिसमें आत्मज्ञान हो वही सच्चा गुरु है; और जो आत्मज्ञानसे रहित हो ऐसे अपने कुलके गुरुको सद्गुरु मानना-यह मात्र कल्पना है, उससे कुछ संसारका नाश नहीं होता। प्रत्यक्ष सद्गुरुमासिनो, गणे परम उपकार । प्रणे योग एकत्वयी, वर्ते आज्ञाधार ॥ ३५॥ वह प्रत्यक्ष सद्गुरुकी प्राप्तिका महान् उपकार समझता है; अर्थात् शास्त्र आदिसे जो समाधान नहीं हो सकता, और जो दोष सद्गुरुकी आज्ञा धारण किये बिना दूर नहीं होते, उनका सद्गुरुके योगसे समाधान हो जाता है, और वे दोष दूर हो जाते है। इसलिये प्रत्यक्ष सद्गुरुका वह महान् उपकार समझता है; और उस सद्गुरुके प्रति मन वचन और कायाकी एकतासे आज्ञापूर्वक चलता है। . एक होय पण काळमा, परमारथनो पंथ । मेरे ते परमार्थने, ते व्यवहार समंत ॥ ३६॥ तीनों कालमें परमार्थका पंथ अर्थात् मोक्षका मार्ग एक ही होना चाहिये; और जिससे वह परमार्थ सिद्ध हो, वह व्यवहार जीवको मान्य रखना चाहिये, दूसरा नहीं। एम विचारी अंतरे, शोध सद्गुरुयोग ॥ काम एक आत्मानं, बीजो नहीं मनरोग ॥ ३७॥ इस तरह अंतरमें विचारकर जो सद्गुरुके योगकी शोध करता है; केवल एक आत्मार्थकी ही इच्छा रखता है, मान पूजा आदि ऋद्धि-सिद्धिकी कुछ भी इच्छा नहीं रखता-यह रोग जिसके मनमें ही नहीं है-वह आत्मार्थी है। कषायनी उपशांतता, मात्र मोक्ष-अभिलाष । भवे खेद पाणी-दया, त्यां आत्मार्थ निवास ॥ ३८ ॥ कषाय जहाँ कृश पड़ गई हैं, केवल एक मोक्ष-पदके सिवाय जिसे दूसरे किसी पदकी अभिलाषा नहीं, संसारपर जिसे वैराग्य रहता है, और प्राणीमात्रके ऊपर जिसे दया है-ऐसे जीवमें आत्मार्थका निवास होता है। दशा न एवी ज्यांसुधी, जीव लहे नहीं जोग्य । मोक्षमार्ग पामे नहीं, मटे न अंतरोंग ॥ ३९ ॥ जबतक ऐसी योग-दशाको जीव नहीं पाता, तबतक उसे मोक्षमार्गकी प्राप्ति नहीं होती, और आत्म-भांतिरूप अनंत दुःखका हेतु अंतर-रोग नहीं मिटता।। ___ आवे ज्यां एवी दशा, सदुरुषोध सुहाय।। ते पोषे सुविचारणा, त्यां प्रगटें मुखदाय ॥४०॥ जहाँ ऐसी दशा होती है, वहाँ सद्गुरुका बोध शोभाको प्राप्त होता है-फलीभूत होता है, और उस बोधके फलीभूत होनेसे सुखदायक सुविचारदशा प्रगट होती है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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