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________________ ६६.]. मात्मसिदि. है, वहाँ पूर्वप्रेरित प्रमादके उदयसे कुछ थोडीसी ही प्रमाद-दशा आ जाती है, परन्तु वह आत्मज्ञानकी रोधक नहीं, चारित्रकी ही रोधक है। . . आशंकाः—यहाँ तो 'स्वरूपस्थित पदका प्रयोग किया है, और स्वरूपस्थिति तो तेरहवें गुणस्थानमें ही संभव है। समाधानः-स्वरूपस्थितिकी पराकाष्ठा तो चौदहवें गुणस्थानके अन्तमें होती है, क्योंकि नाम गोत्र आदि चार कर्मोका वहाँ नाश हो जाता है। परन्तु उसके पहिले केवलीके चार कर्मोका संग रहता है, इस कारण सम्पूर्ण स्वरूपस्थिति तेरहवें गुणस्थानमें भी कही जाती है । आशंकाः-वहाँ नाम आदि कौके कारण अभ्याबाध स्वरूपस्थितिका निषेध करें तो वह ठीक है । परन्तु स्वरूपस्थिति तो केवलज्ञानरूप है, इस कारण वहाँ स्वरूपस्थिति कहनेमें दोष नहीं है, और यहाँ तो वह है नहीं, इसलिये यहाँ स्वरूपस्थिति कैसे कही जा सकती है ! ___ समाधानः केवलज्ञानमें स्वरूपस्थितिका विशेष तारतम्य है; और चौथे, पाँचवें, छठे गुणस्थानमें वह उससे अल्प है-ऐसा कहा जाता है। परन्तु वहाँ स्वरूपस्थिति ही नहीं ऐसा नहीं कहा जा सकता । चौथे गुणस्थानमें मिथ्यात्वरहित दशा होनेसे आत्मस्वभावका आविर्भाव है और स्वरूपस्थिति है। पाँचवें गुणस्थानकमें एकदेशसे चारित्र-घातक कषायोंके निरोध हो जानेसे, चौथेकी अपेक्षा आत्मस्वभावका विशेष आविर्भाव है; और छठेमें कषायोंके विशेष निरोध होनेसे सर्व चारित्रका उदय है, उससे वहाँ आत्मस्वभावका और भी विशेष आविर्भाव है। केवल इतनी ही बात है कि छठे गुणस्थानमें पूर्व निबंधित कर्मके उदयसे कचित् प्रमत्त दशा रहती है, इस कारण वहाँ 'प्रमत्त सर्वचारित्र' कहा जाता है। परन्तु उसका स्वरूपस्थितिसे विरोध नहीं है, क्योंकि वहाँ आत्मस्वभावका बाहुल्यतासे आविर्भाव है । तथा आगम भी ऐसा कहता है कि चौथे गुणस्थानकसे तेरहवें गुणस्थानतक आत्मप्रतीति समान ही है-वहाँ केवल ज्ञानके तारतम्यका ही भेद है। __यदि चौथे गुणस्थानमें अंशसे भी स्वरूपस्थिति न हो तो फिर मिथ्यात्व नाश होनेका फल ही क्या हुआ! अर्थात् कुछ भी नहीं हुआ। जो मिथ्यात्व नष्ट हो गया वही आत्मस्वभावका आविर्भाव है, और वही स्वरूपस्थिति है । यदि सम्यक्त्वसे उस रूप स्वरूपस्थिति न होती, तो श्रेणिक आदिको एकावतारीपना कैसे प्राप्त होता ! वहाँ एक भी व्रत-पच्चक्खाणतक भी नहीं था, और वहाँ भव तो केवल एक ही बाकी रहा-ऐसा जो अल्प संसारीपना हुआ वही स्वरूपस्थितिरूप समकितका बल है । पाँचवें और . छठे गुणस्थानमें चारित्रका विशेष बल है, और मुख्यतासे उपदेशक-गुणस्थान तो छहा और तेरहवाँ हैं। बाकीके गुणस्थान उपदेशककी प्रवृत्ति कर सकने योग्य नहीं हैं। अर्थात् तेरहवें और को गुणस्थानमें ही वह स्वरूप रहता है। " .प्रत्यक्ष सदूरु सम नहीं, परोक्ष जिन उपकार । र एवो लक्ष थया विना, उगे न आत्मविचार ॥ ११ ॥ तक जीवको पूर्वकालीन जिनतीर्थकरोंकी बातपर ही लक्ष रहा करता है, और वह उनके ही उपकारको गाया करता है, और जिससे प्रत्यक्ष आत्म-भांतिका समाधान हो सके, ऐसे सद्गुरुका
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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