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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [६४३ ----.. -- --- .-... -..... ज्ञानी जो परमार्थ-सम्यक्त्व-हो उसे ही कहते हैं । " कषाय घटे वही कल्याण है। जीवके राग, द्वेष, अज्ञान दूर हो जाँय तो उसे कल्याण कहा जाता है '-ऐसा तो लोग कहते हैं कि हमारे गुरु ही कहते हैं, तो फिर सत्पुरुष भिन्न ही क्या बताते हैं " ? ऐसी उलटी-सीधी कल्पनायें करके जीवको अपने दोषोंको दूर करना नहीं है। आत्मा अज्ञानरूपी पत्थरसे दब गई है । ज्ञानी ही आत्माको ऊँचा उठावेगा । आत्मा दब गई है इसलिये कल्याण सूझता नहीं । ज्ञानी जो सद्विचाररूपी सरल कुंजियोंको बताता है वे हजारों तालोंको लगती हैं। ___ जीवके भीतरसे अजीर्ण दूर हो जाय तो अमृत अच्छा लगे; उसी तरह भ्रांतिरूपी अजीर्णके दूर होनेपर ही कल्याण हो सकता है। परन्तु जीवको तो अज्ञानी गुरुने भड़का रक्खा है, फिर भ्रांतिरूप अजीर्ण दूर कैसे हो सकता है ? अज्ञानी गुरु ज्ञानके बदले तप बताते हैं, तपमें ज्ञान बताते हैं इस तरह उल्टा उल्टा बताते हैं, उससे जीवको पार होना बहुत कष्टसाध्य है । अहंकार आदिरहित भावसे तप आदि करना चाहिये। कदाग्रह छोड़कर जीव विचार करे तो मार्ग जुदा ही है । समकित सुलभ है, प्रत्यक्ष है, सरल है। जीव गाँवको छोड़कर दूर चला गया है, तो फिर जब वह पीछे फिरे तो गाँव आ सकता है। सत्पुरुषोंके वचनोंका आस्थासहित श्रवण मनन करे तो सम्यक्त्व आता है । उसके उत्पन्न होनेके पश्चात् व्रत पञ्चक्खाण आते हैं और तत्पश्चात् पाँचवाँ गुणस्थानक प्राप्त होता है। सचाई समझमें आकर उसकी आस्था हो जाना ही सम्यक्त्व है । जिसे सच्चे-झूठेकी कीमत हो गई है-वह भेद जिसका दूर हो गया है, उसे सम्यक्त्व प्राप्त होता है । असद्गुरुसे सत् समझमें नहीं आता । दया, सत्य, बिना दिया हुआ न लेना इत्यादि सदाचार सत्पुरुषके समीप आनेके सत् साधन हैं । सत्पुरुष जो कहते हैं वह सूत्रके सिद्धान्तका परमार्थ है । हम अनुभवसे कहते हैं-अनुभवसे शंका दूर करनेको कह सकते हैं। अनुभव प्रगट दीपक है, और सूत्र कागजमें लिखा हुआ दीपक है । ___ ढूंढियापना अथवा तप्पापना किया करो, परन्तु उससे समकित होनेवाला नहीं । यदि वास्तविक सच्चा स्वरूप समझमें आ जाय-भीतरसे दशा बदल जाय, तो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । परमार्थ में प्रमाद अर्थात् आत्मामेंसे बाह्य वृत्ति । घातिकर्म उसे कहते हैं जो घात करे। परमाणु आत्मासे निरपेक्ष है, परमाणुको पक्षपात नहीं है; उसे जिस रूपसे परिणमा वह उसी रूपसे परिणमता है। निकाचित कर्ममें स्थितिबंध हो तो बराबर बंध होता है। स्थिति-काल न हो और विचार करे, पश्चात्तापसे ज्ञानका विचार करे, तो उसका नाश होता है। स्थिति-काल हो तो भोगनेपर छुटकारा होता है। क्रोध आदिद्वारा जिन कर्मोंका उपार्जन किया हो उनका भोगनेपर ही छुटकारा होता है। उदय आनेपर भोगना ही चाहिये । जो समता रक्खे उसे समताका फल होता है। सबको अपने अपने परिणामके अनुसार कर्म भोगने पड़ते हैं। ज्ञानी, स्त्रीत्वमें पुरुषत्वमें एक-समान है । ज्ञान आत्माका ही है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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