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________________ ६४ उपदेश-छाया - जो साधन कोई बतावे, वे साधन पार होनेके साधन हों तो ही वे सत्साधन है, बाकी तो सब निष्फल साधन हैं । व्यवहारमें अनन्त बाधायें आती हैं तो फिर पार किस तरह पड़े। कोई आदमी जल्दी जल्दी बोले तो वह कषायी कहा जाता है, और कोई धीरजसे बोले तो उसमें शान्ति मालूम होती है। परन्तु अंतर्परिणाम हो तो ही शान्ति कही जा सकती है। जिसे सोनेके लिये एक बिस्तरा-भर चाहिये, वह दस घर फालतू रक्खे तो उसकी वृत्ति कब संकुचित होगी ! जो वृत्ति रोके उसे पाप नहीं । बहुतसे जीव ऐसे हैं जो इस तरहके कारणोंको इकट्ठा करते हैं कि जिससे वृत्ति न रुके-इससे पाप नहीं रुकता। भाद्रपद सुदी १५, १९५२ चौदह राजू लोककी जो कामना है वह पाप है, इसलिये परिणाम देखना चाहिये । कदाचित् ऐसा कहो कि चौदह राजू लोककी तो खबर भी नहीं, तो भी जितनेका विचार किया उतना तो निश्चित पाप हुआ । मुनिको एक तिनकेके ग्रहण करनेकी भी छूट नहीं । गृहस्थ इतना ग्रहण करे तो उसे उतन' ही पाप है। जड़ और आत्मा तन्मय नहीं होते । सूतकी आँटी सूतसे कुछ जुदी नहीं होती, परन्तु ऑटी खोलनेमें कठिनता है, यद्यपि सूत घटता बढ़ता नहीं है। उसी तरह आत्मामें आँटी पड़ गई है। सत्पुरुष और सत्शास्त्र यह व्यवहार कुछ कल्पित नहीं । सद्गुरु-सत्शास्त्ररूपी व्यवहारसे जब निज-स्वरूप शुद्ध हो जाय, तब केवलज्ञान होता है । निज-स्वरूपके जाननेका नाम समकित है । सत्पुरुषके वचनका सुनना दुर्लभ है, श्रद्धान करना दुर्लभ है, विचार करना दुर्लभ है, तो फिर अनुभव करना दुर्लभ हो, इसमें नवीनता ही क्या है ! ___ उपदेश-ज्ञान अनादि कालसे चला आता है । अकेली पुस्तकसे ज्ञान नहीं होता । यदि पुस्तकसे ज्ञान होता हो तो पुस्तकको ही मोक्ष हो जाय ! सद्गुरुकी आज्ञानुसार चलनेमें भूल हो जाय तो पुस्तक केवल अवलम्बनरूप है । चैतन्यभाव लक्ष्यमें आ जाय तो चेतनता प्राप्त हो जाय; चेतनता अनुभवगोचर है । सद्गुरुका वचन श्रवण करे, मनन करे और उसे आत्मामें परिणमावे तो कल्याण हो जाय। ज्ञान और अनुभव हो तो मोक्ष हो जाय । व्यवहारका निषेध करना नहीं चाहिये । अकेले व्यवहारको ही लगे रहना नहीं चाहिये। आत्म-ज्ञानकी बात, जिससे वह सामान्य हो जाय-इस तरह करनी योग्य नहीं । आत्म-ज्ञानकी बात एकांतमें कहनी चाहिये । आत्माका अस्तित्व विचारमें आवे तो अनुभवमें आता है, नहीं तो उसमें शंका होती है । जैसे किसी आदमीको अधिक पटल होनेसे दिखाई नहीं देता, उसी तरह आवरणकी संलमताके कारण आत्माको दिखाई नहीं देता । नींदमें भी आत्माको सामान्यरूपसे जागृति रहती है । आत्मा सम्पूर्णरूपसे सोती नहीं, उसे आवरण आ जाता है । मास्मा हो तो ज्ञान होना संभव है। जब हो तो फिर ज्ञान किसे हो ! • अपनेको अपना भान होना-अपनेको अपना ज्ञान होना-वह जीवन्मुक्त होना है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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