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________________ ६४३] उपदेश-छाया ... उत्तरः-सद्गुरुने कहाः-वृत्तियोंका क्षय करना ही बारह उपांगोंका सार है। ये वृत्तियाँ दो प्रकारकी कही गई हैं:-एक बाह्य और दूसरी अंतरंग । बाह्यवृत्ति अर्थात् आत्मासे बाहर आचरण करना । तथा आत्माके भीतर परिणमन करना, उसमें समा जाना, वह अंतवृत्ति है । पदार्थकी तुच्छता भासमान हुई हो तो अंतर्वृत्ति रह सकती है । जिस तरह थोड़ीसी कीमतके मिट्टीके घड़ेके फट जानेपर, बादमें उसका त्यांग करते हुए आत्मवृत्तिमें क्षोभ होता नहीं, कारण कि उसमें तुच्छता समझ रक्खी है। इसी तरह ज्ञानीको जगत्के सब पदार्थ तुच्छ भासमान होते हैं। ज्ञानीको एक रुपयेसे लगाकर सुवर्ण इत्यादितक सब पदार्थोंमें सर्वथा मिट्टीपना ही भासित होता है । स्त्री हाड़-माँसका पुतला है, यदि यह स्पष्ट जान लिया है, तो इससे उसमें विचारवानको वृत्तिमें क्षोभ होता नहीं। तो भी साधुको ऐसी आज्ञा की है कि जो हज़ारों देवांगनाओंसे भी चलायमान न हो सके ऐसे मुनिको भी, जिसके नाक-कान काट दिये हों ऐसी सौ बरसकी वृद्धा स्त्रीके पास भी रहना नहीं चाहिये। क्योंकि वह वृत्तिको क्षुब्ध करती ही है, ऐसा ज्ञानीने जाना है । तथा साधुको इतना ज्ञान नहीं कि वह उससे चलायमान न हो सकें, ऐसा सोचकर ही उसके पास रहनेकी आज्ञा नहीं की। इस वचनके ऊपर स्वयं ज्ञानीने विशेष भार दिया है। इसलिये यदि वृत्तियाँ पदार्थों में क्षोभको प्राप्त करें, तो उन्हें तुरत ही वापिस खींचकर उन बाह्य वृत्तियोंका क्षय करना चाहिये । जो चौदह गुणस्थानक बताये हैं, वे अंश अंशसे आत्माके गुण बताये हैं, और अन्तमें वे किस तरहके हैं, यह बताया है । जिस तरह किसी हीरेकी यदि चौदह कली बनाओ, तो अनुकमसे उसमेंसे विशेष अति विशेष कान्ति प्रगट होती है, और चौदह कली बना लेनेपर अन्तमें हीरेकी सम्पूर्ण क्रान्ति प्रगट होता है। इसी तरह सम्पूर्ण गुणोंके प्रगट होनेसे आत्मा सम्पूर्णरूपसे प्रगट होती है । चौदह पूर्वधारी वहाँसे (ग्यारहवेंमें से ) जो पीछे गिर जाता है, उसका कारण प्रमाद है। प्रमादके कारणंसे वह ऐसा मानता है कि ' अब मुझे गुण प्रगट हो गया है। ऐसे अभिमानसे वह प्रथम गुणस्थानकमें जा पड़ता है; और उसे अनंतकालका भ्रमण करना पड़ता हैं । इसलिये जीवको अवश्य जागृत रहना चाहिये; कारण कि वृत्तियोंकी ऐसी प्रबलता है कि वह हरेक प्रकारसे ठग लेती है। जीव ग्यारहवं गुणस्थानकमेंसे च्युत हो जाता है, उसका कारण यह है कि वृत्तियाँ प्रथम तो समझती हैं कि 'इस समय यह शूरतामें है, इसलिये अपना बल चलनेवाला नहीं है ' और इस कारण सब चुप होकर दबी हुई रहती हैं । परन्तु वृत्तियोंने जहाँ समझा कि वे क्रोधसे भी ठगी नहीं जॉयगी, मानसे भी ठगी नहीं जायगी, तथा मायाका बल भी चलनेवाला नहीं है ', वहाँ तुरत ही लोभ उदयमें आ जाता है। उस समय मेरेमें कैसी ऋद्धि सिद्धि और ऐश्वर्य प्रकट हुए हैं,' एमी वृत्ति होनेपर, उसका लोभ हो जानेसे जीव वहाँसे च्युत हो जाता है, और पहिले गुणस्थानमें आ पड़ता है । इस कारणसे वृत्तियोंको उपशम करनेकी अपेक्षा उनका क्षय ही करना चाहिये, जिससे वे फिरसे उद्भूत हो न सकें । जिस समय ज्ञानी-पुरुष त्याग करानेके लिये कहे कि इस पदार्थको त्याग दे, तो. वृत्ति गाफिल हो जाती है कि ठीक है, मैं दो दिन पश्चात् त्याग. करूँगी। वृत्ति इस तरह के धोखेमें प्राक जाती है कि वह समझती है, चलो ठीक. हुआ, नाजुक समयका बचा हुआ सौ वर्ष जीता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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