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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ६३४ ही संक्षिप्त किया है। परंपरा रूदिके अनुसार लिखा है, फिर भी उसमें जो कुछ कुछ विशेष भेद समझमें आता है, उसे नहीं लिखा । लिखने योग्य न लगनेसे उसे नहीं लिखा । क्योंकि वह भेद केवल विचार मात्र है; और उसमें कुछ उस तरहका उपकार गर्मित दुआ नहीं जान पड़ता। ५. नाना प्रकारके प्रश्नोत्तरोंका लक्ष एक मात्र आत्मार्थके लिये हो, तो आत्माका बहुत उपकार होना संभव हो। ६३४ स्तंभतीर्थके पास वड़वा, भाद्र.सुदी११गुरु-१९५२ सहजात्मस्वरूपसे यथायोग्य पहुँचे । तीन पत्र मिले हैं। कुछ भी वृत्ति रोकते हुए विशेष अभिमान रहता है । तथा तृष्णाके प्रवाहमें चलनेसे उसमें बह जाते हैं, और उसकी गतिके रोकनेकी सामर्थ्य नहीं रहती,' इत्यादि बातें, तथा क्षमापना और कर्कटी राक्षसीके योगवासिष्ठके प्रसंगकी, जगत्का भ्रम दूर होनेके लिये, जो विशेषता' लिखी, उसे पढ़ी है । हालमें लिखनेमें विशेष उपयोग नहीं रह सकता, इससे पत्रकी पहुँच भी लिखनेसे रह जाती है । संक्षेपमें उन पत्रोंका उत्तर निम्नरूपसे विचारने योग्य है। १. वृत्ति आदिकी न्यूनता अभिमानपूर्वक होती हो तो करना योग्य है। विशेषता इतनी है कि उस अभिमानपर निरंतर खेद रखना हो सके तो क्रमपूर्वक वृत्ति आदिकी न्यूनता हो सकती है, और तत्संबंधी अभिमानका भी न्यून होना संभव है । २. अनेक स्थलोंपर विचारवान पुरुषोंने ऐसा कहा है कि ज्ञान होनेपर काम, क्रोध, तृष्णा आदि भाव निर्मूल हो जाते हैं, वह सत्य है । फिर भी उन वचनोंका ऐसा परमार्थ नहीं है कि ज्ञान होनेके पूर्व वे मन्द न पड़ें अथवा कम न हों । यद्यपि उनका समूल छेदन तो ज्ञानके द्वारा ही होता है, परन्तु जबतक कषाय आदिकी मंदता अथवा न्यूनता न हो तबतक प्रायः करके ज्ञान उत्पन्न ही नहीं होता । ज्ञान प्राप्त होनेमें विचार मुख्य साधन है । और उस विचारके वैराग्य ( भोगके प्रति अनासक्ति ) तथा उपशम ( कषाय आदिकी अत्यन्त मंदता, उसके प्रति विशेष खेद), ये दो मुख्य आधार हैं। ऐसा जानकर उसका निरन्तर लक्ष रखकर वैसी परिणति करना योग्य है। सत्पुरुषके वचनके यथार्थ ग्रहण किये बिना प्रायः करके विचारका उद्भव नहीं होता। और सत्पुरुषके वचनका यथार्थ ग्रहण-सत्पुरुषकी प्रतीति-यह, कल्याण होनेमें सर्वोत्कृष्ट निमित्त होनेसे, उनकी अनन्य आश्रय-भक्ति परिणमित होनेसे होता है । प्रायः करके ये दोनों परस्पर अन्योन्याश्रयके समान हैं। कहीं किसीकी मुख्यता है, और कहीं किसीकी मुख्यता है, फिर भी ऐसा तो अनुभवमें आता है कि जो सच्चा मुमुक्षु हो उसे सत्पुरुषकी आश्रयभक्ति, अहंभाव आदिका छेदन करनेके लिये और अल्पकालमें विचारदशाके फलीभूत होनेके लिये उत्कृष्ट कारणरूप होती है। भोगमें अनासक्ति हो, तथा लौकिक विशेषता दिखानेकी बुद्धि कम की जाय, तो तृष्णा निर्बल होती जाती है । यदि लौकिक मान आदिकी तुच्छता समझमें आ जाय तो उसकी विशेषता मालूम. म. दे, और उससे उसकी इच्छा सहज ही मंद पड़ जाय, ऐसा यथार्थ मालम होता है । बहुत ही
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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