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________________ - पत्र ६३२] विविध पत्र आदि संग्रह-२९वाँ वर्ष ५०७ बीतनेके पश्चात् उसे निर्जीव अर्थात् निर्बाज हो जाने योग्य कहा है। कदाचित् उसका बीज जैसा आकार "हो, भी परन्तु वह बोनेसे उगनेकी योग्यतारहित हो जाता है। सभी बीजोंकी अवधि तीन वर्षकी नहीं होती, कुछ ही बीजोंकी होती है। ५. कैंच विद्वान्द्वारा खोज किये हुए यंत्रकी विगतके बारेमें जो समाचार भेजा है, उसे बाँचा है। उसमें उस यंत्रका जो 'वात्माके देखनेका यंत्र' नाम रक्खा है, वह यथार्थ नहीं है । ऐसा किसी भी दर्शनकी व्याख्यामें आत्माका समावेश नहीं हो सकता । तुमने स्वयं भी उसे आत्माके देखनेका यंत्र नहीं समझा है, ऐसा मानते हैं । तथापि 'उससे कार्माण अथवा तैजस शरीर दिखाई दे सकते हैं, अथवा कोई दूसरा ज्ञान हो सकता है, ' यह जाननेकी तुम्हारी जिज्ञासा मालूम होती है। परन्तु कार्माण अथवा तैजस शरीर भी उस तरहसे नहीं देखे जा सकते। किन्तु चक्षु, प्रकाश, वह यंत्र, मरनेवालेकी देह, और उसकी छाया अथवा किसी आभासविशेषसे वैसा होना संभव है । उस यंत्रविषयक अधिक विवरण प्रसिद्ध होनेपर, यह बात पूर्वापर अधिकतर जाननेमें आयेगी। हवाके परमाणुओंके दिखाई देनेके विषयमें भी उनके लिखनेकी अथवा देखे हुए स्वरूपकी व्याख्या करनेमें कुछ कुछ पर्याय-भेद मालूम होता है । हवासे गमन करनेवाले किसी परमाणु स्कंधका (व्यावहारिक परमाणु-कुछ कुछ विशेष प्रयोगसे जो · दृष्टिगोचर हो सकता हो ) दृष्टिगोचर होना संभव है; अभी उनकी अधिक कृति प्रसिद्ध होनेपर विशेष समाधान करना योग्य मालूम होता है। - ६३२ रालज, श्रावण वदी १४ रवि. १९५२ विचारवान पुरुष तो कैवल्यदशा होनेतक मृत्युको नित्य समीप ___ समझकर ही प्रवृत्ति करते हैं. . प्रायः उत्पन्न किये हुए कर्मकी रहस्यरूप मति मृत्युके समय ही होती है । दो प्रकारके भाव हो सकते हैं-एक तो कचित् , थोड़ा ही, परिचित होनेपर परमार्थरूप भाव; और दूसरा नित्य परिचित निज कल्पना आदि भावसे रूढि-धर्मका ग्रहणरूप भाव । सद्विचारसे यथार्थ आत्मदृष्टि अथवा वास्ताविक उदासीनता तो सब जीवसमूहको देखनेपर, किसी किसी विरले जीवको ही कचित् कचित् होती है और दूसरा जो अनादि परिचित भाव है, वही प्रायः सब जीवोंमें देखनेमें आता है। और देहांत होनेके प्रसंगपर भी उसीका प्राबल्य देखा जाता है, ऐसा जानकर मृत्यु के समीप आनेपर विचारवान पुरुष तथारूप परिणति करनेका विचार छोड़कर पहिलेसे ही उस क्रममें रहता है । तुम स्वयं भी बाह्य क्रियाके विधि-निषेधके आग्रहको विसर्जनवत् करके, अथवा उसमें अंतर्परिणामसे उदासीन होकर, देह और तद्विषयक संबंधका बारम्बारका विक्षेप छोड़कर, यथार्थ आत्मभावके विचार करनेको लक्षमें रक्खो तो.ही सार्थकता है। अन्तिम अवसर आनेपर अनशन आदि, संस्तर आदि, अथवा सल्लेखना आदि क्रियायें कत्रित बनें या न भी बनें, तो भी जो जीवको ऊपर कहा है, वह भाव जिसके लक्षम है, उसका जन्म सफल है, और वह क्रमसे निःश्रेयसको प्राप्त होता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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