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________________ ४९८ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ६१४ अमूर्तता कोई वस्तु है या अवस्तु ! अमूर्तता यदि कोई वस्तु है तो वह कुछ स्थूल है या नहीं ! मूर्त पुद्गलका और अमूर्त जीवका संयोग कैसे हो सकता है ! धर्म, अधर्म और जीव द्रव्यका क्षेत्र-व्यापित्व जिस प्रकारसे जिनभगवान् कहते हैं, उस प्रकार माननेसे वे द्रव्य उत्पन्न-स्वभावीकी तरह सिद्ध होते हैं, क्योंकि उनका मध्यम-परिणामीपना है। धर्म, अधर्म और आकाश इन पदार्थोकी द्रव्यरूपसे एक जाति, और गुणरूपसे भिन्न भिन्न जाति मानना ठीक है, अथवा द्रव्यत्वको भी भिन्न भिन्न मानना ही ठीक है। द्रव्य किसे कहते हैं ! गुण-पर्यायके बिना उसका दूसरा क्या स्वरूप है ! केवलज्ञान यदि सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका ज्ञायक ठहरे तो सब वस्तुएँ नियत मर्यादामें आ जॉय-उनकी अनंतता सिद्ध न हो, क्योंकि उनका अनंत-अनादिपना समझमें नहीं आता; अर्थात् केवलज्ञानमें उनका किस रीतिसे प्रतिभास हो सकता है ! उसका विचार बराबर ठीक ठीक नहीं बैठता। जैनदर्शन जिसे सर्वप्रकाशकता कहता है, वेदान्त उसे सर्वव्यापकता कहता है । दृष्ट वस्तुके ऊपरसे अदृष्टका विचार खोज करने योग्य है। जिनभगवान्के अभिप्रायसे आत्माको स्वीकार करनेसे यहाँ लिखे हुए प्रसंगोंके ऊपर अधिक विचार करना चाहियेः १. असंख्यात प्रदेशका मूल परिमाण. २. संकोच-विकासवाली जो आत्मा स्वीकार की है, वह संकोच विकास क्या अरूपीमें हो सकता है ! तथा वह किस प्रकार हो सकता है ! ३. निगोद अवस्थाका क्या कुछ विशेष कारण है ! ४. सर्व द्रव्य क्षेत्र आदिकी जो प्रकाशकता है, आत्मा तद्रूप केवलज्ञान-स्वभावी है, या निजस्वरूपमें अवस्थित निजज्ञानमय ही केवलज्ञान है ! ५. आत्मामें योगसे विपरिणाम है, स्वभावसे विपरिणाम है । विपरिणाम आत्माकी मूल सत्ता है, संयोगी सत्ता है। उस सत्ताका कौनसा द्रव्य मूल कारण है ! ६. चेतन हीनाधिक अवस्थाको प्राप्त करे, उसमें क्या कुछ विशेष कारण है ! निज स्वभावका ! पुगल संयोगका ! अथवा उससे कुछ भिन्न ही ! ७. जिस तरह मोक्ष-पदमें आत्मभाव प्रगट हो उस तरह मूल द्रव्य मानें, तो आत्माके लोकव्यापक-प्रमाण न होनेका क्या कारण है ! .. ८.झान गुण है और आत्मा गुणी है, इस सिद्धांतको घटाते हुए आत्माको छानसे कथंचित भिन्न किस अपेक्षासे मानना चाहिये ! जडत्वमावसे अथवा अन्य किसी गुणकी अपेक्षासे । ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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