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________________ पत्र ६०५, ६.६] विविध पत्र आदि संग्रह-२९वाँ वर्ष ४९५ अपेक्षा जिनभगवानकी कही हुई बंध-मोक्षके स्वरूपकी शिक्षा जितनी सम्पूर्ण प्रतिभासित होती है, उतनी दूसरे दर्शनोंकी प्रतिभासित नहीं होती, और जो सम्पूर्ण शिक्षा है वही प्रमाणसे सिद्ध है। शंकाः-यदि तुम ऐसा समझते हो तो किसी तरह भी निर्णयका समय नहीं आ सकता, क्योंकि सब दर्शनोंमें, जिस जिस दर्शनमें जिसकी स्थिति है, उस उस दर्शनके लिये सम्पूर्णता मानी है। ____उत्तर:-यदि ऐसा हो तो उससे सम्पूर्णता सिद्ध नहीं होती; जिसकी प्रमाणद्वारा सम्पूर्णता हो वही सम्पूर्ण सिद्ध होता है। प्रश्नः--जिस प्रमाणके द्वारा तुम जिनभगवान्की शिक्षाको सम्पूर्ण मानते हो, उस प्रकारको तुम कहो; और जिस प्रकारसे वेदांत आदिकी सम्पूर्णता तुम्हें संभव मालूम होती है, उसे भी कहो । ६०५ प्रत्यक्षसे अनेक प्रकारके दुःखोंको देखकर, दुःखी प्राणियोंको देखकर तथा जगत्की विचित्र रचनाको देखकर, वैसे होनेका हेतु क्या है ! उस दुःखका मूलस्वरूप क्या है ! और उसकी निवृत्ति किस प्रकारसे हो सकती है ! तथा जगत्की विचित्र रचनाका अंतर्वरूप क्या है ? इत्यादि भेदमें जिसे विचार-दशा उत्पन्न हुई है ऐसे मुमुक्षु पुरुषने, पूर्व पुरुषोंद्वारा ऊपर कहे हुए विचारोंसंबंधी जो कुछ अपना समाधान किया था अथवा माना था, उस विचारके समाधानके प्रति भी यथाशक्ति आलोचना की । उस आलोचनाके करते हुए विविध प्रकारके मतमतांतर तथा अभिप्रायसंबंधी यथाशक्ति विशेष विचार किया । तथा नाना प्रकारके रामानुज आदि सम्प्रदायोंका विचार किया। तथा वेदान्त आदि दर्शनका विचार किया। उस आलोचनामें अनेक प्रकारसे उस दर्शनके स्वरूपका मंथन किया, और प्रसंग प्रसंगपर मंथनकी योग्यताको प्राप्त ऐसे जैनदर्शनके संबंधमें अनेक प्रकारसे जो मंथन हुआ, उस मंथनसे उस दर्शनके सिद्ध होनेके लिये, जो पूर्वापर विरोध जैसे मालूम होते हैं, ऐसे नीचे लिखे कारण दिखाई दिये। ६०६ ___धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकायके अरूपी होनेपर भी वे रूपी पदार्थको सामर्थ्य प्रदान करते हैं, और इन तीन द्रव्योंको स्वभावसे परिणामी कहा है, तो ये अरूपी होनेपर भी रूपीको कैसे सहायक हो सकते हैं ! धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय एक क्षेत्र-अवगाही हैं, और उनका स्वभाव परस्पर विरुद्ध है, फिर भी उनमें गतिशील वस्तुके प्रति स्थिति-सहायतारूपसे, और स्थितिशील वस्तुके प्रति गति-सहायतारूपसे विरोध क्यों नहीं आता ! .. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और एक आमा—ये तीनों असंख्यात प्रदेशी हैं, इसका क्या कोई दूसरा ही रहस्य है! धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकायकी अवगाहना अमुक अमृताकारसे है-ऐसा होने में क्या कुछ रहस्य है ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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