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________________ ४९२ श्रीमद् राजवन्द्र . [पत्र ५९८ आश्रय लिया है, और आज्ञाश्रितभाव अथवा परमपुरुष सद्गुरुमें सर्वार्पण-स्वाधीनभावको सिरसे वंदनीय माना है, और वैसे ही प्रवृत्ति की है। किन्तु वैसा योग प्राप्त होना चाहिये, नहीं तो जिसका चिंतामणिके समान एक एक समय है, ऐसी मनुष्य देहका उल्टा परिभ्रमणकी वृद्धिका ही हेतु होना संभव है। श्री..."के अभिप्रायपूर्वक तुम्हारा लिखा हुआ पत्र तथा श्री."का लिखा हुआ पत्र मिला है। श्री... के अभिप्रायपूर्वक श्री...'ने लिखा है कि निश्चय और व्यवहारकी अपेक्षासे ही जिनागम तथा वेदांत आदि दर्शनमें वर्तमान कालमें इस क्षेत्रसे मोक्षका निषेध तथा विधानका कहा जाना संभव हैयह विचार विशेष अपेक्षासे यथार्थ दिखाई देता है, और .......'ने लिखा है कि वर्तमान कालमें संघयण आदिके हीन होनेके कारणसे केवलज्ञानका जो निषेध किया है, वह भी अपेक्षित है । यहाँ विशेषार्थके लक्षमें आनेके लिये गत पत्रके प्रश्नको कुछ स्पष्टरूपसे लिखते हैं:--- जिस प्रकार जिनागमसे केवलज्ञानका अर्थ वर्तमानमें, वर्तमान जैनसमूहमें प्रचलित है, उसी तरहका उसका अर्थ तुम्हें यथार्थ मालूम होता है या कुछ दूसरा अर्थ मालूम होता है ? सबै देश काल आदिका ज्ञान केवलज्ञानीको होता है, ऐसा जिनागमका वर्तमानमें रूढ़ि-अर्थ है । दूसरे दर्शनोंमें यह मुख्यार्थ नहीं है, और जिनागमसे वैसा मुख्य अर्थ लोगोंमें वर्तमानमें प्रचलित है। यदि वहाँ केवलज्ञानका अर्थ हो तो उसमें बहुतसा विरोध दिखाई देता है । उस सबको यहाँ लिख सकना नहीं बन सकता । तथा जिस विरोधको लिखा है, उसे भी विशेष विस्तारसे लिखना नहीं बना । क्योंकि उसे यथावसर ही लिखना योग्य मालूम होता है । जो लिखा है, वह उपकार दृष्टिसे लिखा है, यह लक्ष रखना। योगधारीपना अर्थात् मन वचन और कायासहित स्थिति होनेसे, आहार आदिके लिये प्रवृत्ति होते समय उपयोगांतर हो जानेसे, उसमें कुछ भी वृत्तिका अर्थात् उपयोगका निरोध होना संभव है। एक समयमें किसीको दो उपयोग नहीं रहते, जब यह सिद्धांत है, तो आहार आदिकी प्रवृत्तिके उपयोगमें रहता हुआ केवलज्ञानीका उपयोग केवलज्ञानके ज्ञेयके प्रति रहना संभव नहीं; और यदि ऐसा हो तो केवलज्ञानको जो अप्रतिहत कहा है, वह प्रतिहत हुआ माना जाय । यहाँ कदाचित् - ऐसा समाधान करें कि जैसे दर्पणमें पदार्थ प्रतिविम्बित होते हैं, वैसे ही केवलज्ञानमें सर्व देश काल प्रतिबिम्बित होते हैं। तथा केवलज्ञानी उनमें उपयोग लगाकर उन्हें जानता है, यह बात नहीं है, किन्तु सहज स्वभावसे ही वे पदार्थ प्रतिभासित हुआ करते हैं, इसलिये आहार आदिमें उपयोग रहते हुए सहज स्वभावसे प्रतिभासित ऐसे केवलज्ञानका अस्तित्व यथार्थ है, तो यहाँ प्रश्न हो सकता है कि दर्पणमें प्रतिभासित पदार्थका ज्ञान दर्पणको नहीं होता, और यहाँ तो ऐसा कहा है कि केवलज्ञानीको उन पदार्थोका ज्ञान होता है तथा उपयोगके सिवाय आत्माका ऐसा कौनसा दूसरा स्वरूप है कि जब आहार आदिमें उपयोग रहता हो, तब उससे केवलज्ञानमें प्रतिभासित होने योग्य ज्ञेयको आत्मा जान सके ! ..
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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