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________________ पत्र ५९४] विविध पत्र आदि संग्रह-२९वा वर्ष यह जाननमें आया भी हो, तो जिससे उस पहिचानमें भ्रांति हो, वैसा व्यवहार जो उस सत्पुरुषमें प्रत्यक्ष दिखाई देता है, उस भ्रांतिके निवृत्त होनेके लिये मुमुक्षु जीवको उस पुरुषको किस प्रकारसे पहिचानना चाहिये, जिससे उस उस तरहके व्यवहारमें प्रवृत्ति करते हुए भी ज्ञान-स्वरूपता उसके लक्षमें रहे? सर्व प्रकारसे जिसे परिग्रह आदि संयोगके प्रति उदासीन भाव रहता है, अर्थात् जिसे तथारूप संयोगोंमें अहंता-ममताभाव नहीं होता, अथवा वह भाव जिसका परिक्षीण हो गया है, ऐसे ज्ञानी-पुरुषको 'अनंतानुबंधी प्रकृतिसे रहित मात्र प्रारब्धके उदयसे ही जो व्यवहार रहता हो, वह व्यवहार सामान्य दशाके मुमुक्षुको संदेहका कारण होकर उसके उपकारभूत होनेमें निरोधरूप होता हो, उसे वह ज्ञानीपुरुष जानता है, और उसके लिये भी परिग्रह संयोग आदि प्रारब्धोदय व्यवहारकी क्षीणताकी ही इच्छा करता है; वैसा होनेतक उस पुरुपने किस प्रकारसे वर्ताव किया हो, तो उस सामान्य मुमुक्षुके उपकार होनेमें हानि न हो? ५९४ ववाणीआ, वैशाख वदी ६ रवि. १९५२ आर्य श्रीमाणेकचंद आदिके प्रति, श्रीस्तंभतीर्थ. श्रीसुंदरलालके वैशाख वदी १ को देह छोड़ देनेकी जो खबर लिखी है, यह बाँची है । अधिक समयकी माँदगीके बिना ही युवावस्थामें अकस्मात् देह छोड़ देनेके कारण, उसे सामान्यरूपसे पहिचाननेवाले लोगोंको भी उस बातसे खेद हुए विना न रहे, तो फिर जिसने कुटुम्ब आदि सम्बन्धके स्नेहसे उसमें मू» की हो, जो उसके सहवासमें रहा हो, जिसने उसके प्रति आश्रय-भावना रक्खी हो, उसे खेद हुए बिना कैसे रह सकता है ? इस संसारमें मनुष्य-प्राणीको जो खेदके अकथनीय प्रसंग प्राप्त होते हैं, उन्हीं अकथनीय प्रसंगोंमेंका यह एक महान् खेदकारक प्रसंग है । उस प्रसंगमें यथार्थ विचारवान पुरुषोंके सिवाय सभी प्राणी विशेष खेदको प्राप्त होते हैं; और यथार्थ विचारवान पुरुषोंको विशेष वैराग्य होता है- उन्हें संसारकी अशरणता, अनित्यता और असारता विशेष दृढ़ होती है। विचारवान पुरुषोंको उस खेदकारक प्रसंगका मूीभावसे खेद करना, वह मात्र कर्म-बंधका हेतु भासित होता है; और वैराग्यरूप खेदसे कर्म-संगकी निवृत्ति भासित होती है, और वह सत्य है । मूर्छाभावसे खेद करनेसे भी जिस संबंधीका वियोग हो गया है उसकी फिरसे प्राप्ति नहीं होती, और जो मूर्छा होती है वह भी अविचार दशाका फल है, ऐसा विचारकर विचारवान पुरुष उस मूर्छाभावप्रत्ययी खेदको शान्त करते हैं, अथवा प्रायः करके वैसा खेद उन्हें नहीं होता। किसी भी तरह उस खेदका हितकारीपना देखनेमें नहीं आता, और आकस्मिक घटना खेदका निमित्त होती है, इसलिये वैसे अवसरपर विचारवान पुरुषोंको, जीवको हितकारी खेद ही उत्पन्न होता है । सर्व संगकी अशरणता, अबंधुता, अनित्यता, और तुच्छता तथा अन्यत्वपना देखकर अपने आपको विशेष प्रतिबोध होता है कि 'हे जीव । तुझमें कुछ भी इस संसारविषयक उदय आदि भावसे मूर्छा रहती हो तो उसे त्याग कर ......."स्याग कर, उस मूर्छाका कुछ भी फल नहीं है । उस संसार में कभी भी शरणत्व आदि भाव प्राप्त होनेवाला नहीं, और अविचारभावके बिना उस संसारमें मोह होना योग्य नहीं; जो मोह अनंत जन्म मरण और प्रत्यक्ष खेदका हेतु है, दुःख और केशका बीज है, उसे शांत कर-उसको क्षय कर । हे जीव ! इसके
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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