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________________ पत्र. ५९०] विविध पत्र आदि संग्रह-२९वाँ वर्ष ५९० बम्बई, चैत्र सुदी ११, १९५२ ॐ सद्गुरुचरणाय नमः १ जिस ज्ञानमें देह आदि अध्यास दूर हो गया है, और दूसरे पदार्थमें अहंता-ममता नहीं रही, तथा उपयोग निज स्वभावमें परिणमता है, अर्थात् ज्ञानस्वरूपताका सेवन करता है, उस ज्ञानको 'निरावरण-ज्ञान' कहना चाहिये। २. सब जीवोंको अर्थात् सामान्य मनुष्योंको ज्ञानी-अज्ञानीकी वाणीका भेद समझना कठिन है, यह बात यथार्थ है। क्योंकि बहुतसे शुष्कज्ञानी शिक्षा प्राप्त करके यदि ज्ञानी जैसा उपदेश करें, तो उसमें वचनकी समानता देखनेसे, सामान्य मनुष्य शुष्कज्ञानीको भी ज्ञानी मान लें, और मंद-दशावाले मुमुक्षु जीवोंको भी उन वचनोंसे भ्रांति हो जाय । परन्तु उत्कृष्ट दशावाले मुमुक्षु पुरुषको, शुष्कज्ञानीकी वाणीको शब्दसे ज्ञानीकी वाणी जैसी समझकर प्रायः भ्रांति करना योग्य नहीं है । क्योंकि आशयसे, शुष्कज्ञानीकी वाणीसे ज्ञान की वाणीकी तुलना नहीं होती। ज्ञानीकी वाणी पूर्वापर अविरुद्ध, आत्मार्थ-उपदेशक और अपूर्व अर्थका निरूपण करनेवाली होती है, और अनुभवसहित होनेसे वह आत्माको सतत जागृत करती है। शुष्कज्ञानीकी वाणीमें तथारूप गुण नहीं होते। सबसे उत्कृष्ट गुण जो पूर्वापर अविरोधभाव है, वह शुष्कज्ञानीकी वाणीमें नहीं रह सकता; क्योंकि उसे यथास्थित पदार्थका दर्शन नहीं होता; और इस कारण जगह जगह उसकी वाणी कल्पनासे युक्त होती है। ___ इत्यादि नाना प्रकारके भेदोंसे ज्ञानी और शुष्कज्ञानीकी वाणीकी पहिचान उत्कृष्ट मुमुक्षुको ही हो सकती है। ज्ञानी-पुरुषको तो सहज स्वभावसे ही उसकी पहिचान है, क्योंकि वह स्वयं भानसहित है, और भानसहित पुरुषके बिना इस प्रकारके आशयका उपदेश नहीं दिया जा सकता, इस बातको वह सहज ही जानता है। जिसे ज्ञान और अज्ञानका भेद समझमें आ गया है, उसे अज्ञानी और ज्ञानीका भेद सहजमें समझमें आ सकता है। जिसका अज्ञानके प्रति मोह शान्त हो गया है, ऐसे ज्ञानी-पुरुषको शुष्कज्ञानीके वचन किस तरह भ्रांति उत्पन्न कर सकते हैं ! हाँ, सामान्य जीवोंको अथवा मंददशा और मध्यमदशाके मुमुक्षुओंको शुष्कज्ञानीके वचन समानरूप दिखाई देनेसे, दोनों ही ज्ञानीके वचन हैं, ऐसी भ्रांति होना संभव है। उत्कृष्ट मुमुक्षुको प्रायः करके वैसी भ्रांति संभव नहीं, क्योंकि उसे ज्ञानीके वचनकी परीक्षाका बल विशेषरूपसे स्थिर हो गया है। पूर्वकालमें जो ज्ञानी हो गये हों, और मात्र उनकी मुख-वाणी ही बाकी रही हो, तो भी वर्तमान कालमें ज्ञानी-पुरुष यह जान सकते हैं कि वह वाणी ज्ञानी-पुरुषकी है। क्योंकि रात्रि दिवसके भेदकी तरह अज्ञानी और ज्ञानीकी वाणीमें आशयका भेद होता है, और आत्म-दशाके तारतम्यके अनुसार आशययुक्त वाणी ज्ञानी-पुरुषकी ही निकलती है । वह आशय उसकी वाणांके ऊपरसे 'वर्तमान ज्ञानी पुरुष' को स्वामाविक ही दृष्टिगोचर होता है; और कहनेवाले पुरुषकी दशाका तारतम्य लक्षमें आता है। यहाँ जो वर्तमान ज्ञानी पुरुष' लिखा है, वह किसी विशेष प्रज्ञावंत प्रगट-बोध-बीजसहित-पुरुष
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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