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________________ . ... . ... .. ........ पत्र ५४४, ५४५] विविध पत्र मादि संग्रह-२८वाँ वर्ष ४६७ सक्रिय हैं । व्यवहार नयसे परमाणु, पुद्गल और संसारी जीव सक्रिय हैं, क्योंकि वे अन्योन्य-ग्रहण; त्याग आदिसे एक परिमाणकी तरह संबद्ध होते हैं। नष्ट होना-विध्वंस होना-यह यावत् पुद्गलके परमाणुका धर्म कहा है........परमार्थसे गुण वर्ण आदिका पलटना और स्कंधका विखर जाना कहा है। --- -- -- -... ... . .. ... .... -(खंडित पत्र) ५४४ . राणपुर, आसोज सुदी २ शुक्र. १९५१ कुछ भी बने तो जहाँ आत्मार्थकी चर्चा होती हो वहाँ जाना आना और श्रवण आदिका समागम करना योग्य है। चाहे तो जैनदर्शनके सिवाय दूसरे दर्शनकी व्याख्या होती हो तो उसे भी विचारके लिये श्रवण करना योग्य है । ५४५ श्रीखंभात, आसोज सुदी १९५१ सत्यसंबंधी उपदेशका सार. वस्तुको यथार्थ स्वरूपसे जैसे जानना-अनुभव करना—उसे उसी तरह कहना वह सत्य है । यह सत्य दो प्रकारका है-एक परमार्थ सत्य और दूसरा व्यवहार सत्यः । । परमार्थ सत्य अर्थात् आत्माके सिवाय दूसरा कोई पदार्थ आत्माका नहीं हो सकता, ऐसा निश्चय समझकर भाषा बोलने में, व्यवहारसे देह, स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, धान्य, गृह आदि वस्तुओंके संबंधमें बोलनेके पहिले, एक आत्माको छोड़कर दूसरा कुछ भी मेरा नहीं है-यह उपयोग रहना चाहिये । अन्य आत्माके संबंधमें बोलते समय उस आत्मामें जाति, लिंग, और उस प्रकारके औपचारिक भेद न होनेपर भी केवल व्यवहारनयसे प्रयोजनके लिये ही उसे संबोधित किया जाता है-इस प्रकार उपयोगपूर्वक बोला जाय तो वह पारमार्थिक भाषा है, ऐसा समझना चाहिये । जैसे कोई मनुष्य अपनी आरोपित देहकी, घरकी, स्त्रीकी, पुत्रकी अथवा अन्य पदार्थकी जिस समय बात करता हो, उस समय ' स्पष्टरूपसे उन सब पदार्थों से बोलनेवाला मैं भिन्न हूँ, और वे मेरे नहीं हैं,' इस प्रकार बोलनेवालेको स्पष्टरूपसे भान हो तो वह सत्य कहा जाता है । जिस प्रकार कोई ग्रंथकार श्रेणिक राजा और चेलना रानीका वर्णन करता हो, तो वे दोनों आत्मा थे, और केवल श्रेणिकके भवकी अपेक्षासे ही उनका तथा स्त्री, पुत्र, धन, राज्य वगैरहका. संबंध था, इस बातके लक्ष्यमें रखनेके पश्चात् बोलनेकी प्रवृत्ति करे-यही परमार्थ सत्य है । व्यवहार सत्यके आये बिना परमार्थ सत्य वचनका बोलना नहीं हो सकता। इसलिये व्यवहार सत्यको निम्न प्रकारसे जानना चाहिये:-. . ___व्यवहार सत्यः-जिस प्रकारसे वस्तुका स्वरूप देखनेसे, अनुभव करनेसे, श्रवण करनेसे अथवा बाँचनेसे हमें अनुभवमें आया हो, उसी प्रकारसे याथातथ्यरूपसे वस्तुका स्वरूप कहने और उस प्रसंगपर वचन बोलनेका नाम व्यवहार सत्य है । जैसे किसीने किसी मनुष्यका लाल घोड़ा जंगलमें दिनके बारह बजे देखा हो, और किसीके पूछनेपर उसी तरह याथातथ्य वचन बोल देना, यह
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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