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________________ पत्र ५१९, ५२०] विविध पत्र आदि संग्रह-२८वाँ वर्ष संक्षेपमें लिखे हुए ज्ञानीके मार्गके आशयको उपदेश करनेवाले इन वाक्योंका मुमुक्षु जीवको अपनी आत्मामें निरन्तर ही परिणमन करना योग्य है; जिन्हें हमने आत्म-गुणको विशेष विचारनेके लिये शब्दरूपमें लिखा है। ५१९ बम्बई, ज्येष्ठ सुदी १० रवि. १९५१ ज्ञानी-पुरुषको जो सुख रहता है, वह निज स्वभावमें स्थिरताका ही सुख रहता है । बाह्य पदार्थमें उसे सुख-बुद्धि नहीं होती; इसलिये उस उस पदार्थसे ज्ञानीको सुख-दुःख आदिकी विशेषता अथवा न्यूनता नहीं कही जा सकती । यद्यपि सामान्यरूपसे शरीरको स्वस्थता आदिसे साता और ज्वर आदिसे असाता ज्ञानी और अज्ञानी दोनोंको ही होती है, परन्तु ज्ञानीको वह सब प्रसंग हर्षविषादका हेतु नहीं होता; अथवा यदि ज्ञानकी तरतमतामें न्यूनता हो तो उससे कुछ कुछ हर्ष-विषाद होता है, फिर भी सर्वथा अजागतभावको पाने योग्य हर्ष-विषाद नहीं होता । उदय-बलसे कुछ कुछ वैसा परिणाम होता है, तो भी विचार-जागृतिके कारण उस उदयको क्षीण करनेके लिये ही ज्ञानीपुरुषका परिणाम रहता है । ___ जैसे वायुकी दिशा बदल जानेसे जहाज दूसरी तरफको चलने लगता है, परन्तुं जहाज़ चलानेवाला उस जहाजको अभीष्ट मार्गकी ओर रखनेके ही प्रयत्नमें रहता है, उसी तरह ज्ञानी-पुरुष मन वचन आदि योगको निजभावमें स्थिति होनेकी ओर ही लगाता है, फिर भी उदयरूप वायुके संबंधसे यत्किंचित् दिशाका फेर हो जाता है, तो भी परिणाम--प्रयत्न-तो आने ही धर्ममें रहता है। ज्ञानी निर्धन ही हो अथवा धनवान ही हो, और अज्ञानी निर्धन ही हो अथवा धनवान ही हो, यह कोई नियम नहीं है । पूर्वमें निष्पन्न शुभ-अशुभ कर्मके अनुसार ही दोनोंको उदय रहता है। ज्ञानी उदयमें सम रहता है, अज्ञानीको हर्ष-विषाद होता है। जहाँ सम्पूर्ण ज्ञान है, वहाँ तो स्त्रियाँ आदि परिग्रहका भी अप्रसंग है। उससे न्यून भूमिकाकी ज्ञान-दशामें (चौथे पाँचवें गुणस्थानमें जहाँ उस योगका मिलना संभव है, उस दशामें ) रहनेवाले ज्ञानी-सम्यग्दृष्टिको ही-स्त्रियाँ आदि परिग्रहकी प्राप्ति होती है। (२) पर पदार्थसे जितने अंशमें हर्ष-विषाद हो उतना ही ज्ञानका तारतम्य कमती होता है, ऐसा सर्वज्ञने कहा है। ५२० बम्बई, आषाढ़ सुदी १ रवि. १९५१ १. सत्यका ज्ञान होनेके पश्चात् मिथ्या प्रवृत्ति दूर न हो, ऐसा नहीं होता । क्योंकि जितने अंशमें सत्यका ज्ञान हो उतने ही अंशमें मिथ्याभाव-प्रवृत्तिका दूर होना संभव है, यह जिनभगवान्का निश्चय है । कभी पूर्व प्रारब्धसे यदि बाह्य प्रवृत्तिका उदय रहता हो, तो भी मिथ्या प्रवृत्तिमें तादात्म्य
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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