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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ५०४, ५०५, ५०६ ५०४ बम्बई, वैशाख सुदी १९५१ । श्री....... से सुधारससंबंधी बातचीत करनेका तुम्हें अवसर प्राप्त हो तो करना। . .. जो देह पूर्ण युवावस्था और सम्पूर्ण आरोग्यतायुक्त दिखाई देनेपर भी क्षणभंगुर है, उस देहमें प्रीति करके क्या करें ? जगत्के समस्त पदार्थोकी अपेक्षा जिसके प्रति सर्वोत्कृष्ट प्रीति है, ऐसी यह देह भी दुःखकी ही हेतु है, तो फिर दूसरे पदार्थ में सुखके हेतुकी क्या कल्पना करना ! जिन पुरुषोंने, जैसे वस्त्र शरीरसे भिन्न है, इसी तरह आत्मासे शरीर भिन्न है-यह जान लिया है, वे पुरुष धन्य हैं। यदि दूसरेकी वस्तुका अपने द्वारा ग्रहण हो गया हो, तो जिस समय यह मालूम हो जाता ह कि यह वस्तु दूसरेकी है, उसी समय महात्मा पुरुष उसे वापिस लौटा देते हैं। .. दुःषम काल है, इसमें संशय नहीं। तथारूप परमज्ञानी आप्त-पुरुषका प्रायः विरह ही है। विरले ही जीव सम्यक्दृष्टिभाव प्राप्त करें, ऐसी काल-स्थिति हो गई है। जहाँ सहज-सिद्ध-आत्मचारित्र दशा रहती है, ऐसा केवलज्ञान प्राप्त करना कठिन है, इसमें संशय नहीं । प्रवृत्ति विश्रान्त नहीं होती; विरक्तभाव अधिक रहता है । वनमें अथवा एकांतमें सहज स्वरूपका अनुभव करती हुई आत्मा निर्विषय रहे, ऐसा करनेमें ही समस्त इच्छा रुकी हुई है। ५०५ बम्बई, वैशाख सुदी १५ बुध. १९५१ आत्मा अत्यंत सहज स्वस्थता प्राप्त करे, यही श्रीसर्वज्ञने समस्त ज्ञानका सार कहा है। - अनादिकालसे जीवने निरंतर अस्वस्थताकी ही आराधना की है, जिससे जीवको स्वस्थताकी ओर आना कठिन पड़ता है। श्रीजिनने ऐसा कहा है कि 'यथाप्रवृत्तिकरण'तक जीव अनंत बार आ चुका है, परन्तु जिस समय ग्रंथी-भेद होनेतक आगमन होता है, उस समय वह क्षोभ पाकर 'पीछे संसार-परिणामी हो जाया करता है । ग्रंथी-भेद होनेमें जो वीर्य-गति चाहिये, उसके होनेके लिये जीवको नित्यप्रति सत्समागम, सद्विचार और सग्रंथका परिचय निरंतररूपसे करना श्रेयस्कर है। इस देहकी आयु प्रत्यक्ष उपाधि-योगसे व्यतीत हुई जा रही है, इसलिये अत्यंत शोक होता है, और उसका यदि अल्पकालमें ही उपाय न किया गया, तो हम जैसे अविचारी लोग भी थोड़े ही समझने चाहिये। जिस ज्ञानसे काम नाश हो उस ज्ञानको अत्यंत भक्तिसे नमस्कार हो। ५०६ बम्बई, वैशाख सुदी १५ बुध. १९५१ .... सबकी अपेक्षा जिसमें अधिक स्नेह रहा करता है, ऐसी यह काया रोग जरा आदिसे अपनी ही आत्माको दुःखरूप हो जाती है, तो फिर उससे दूर ऐसे धन आदिसे जीवको तयारूप (यथायोग्य ) सुख-वृत्ति हो, ऐसा विचार करनेपर विचारवानकी बुद्धिको अवश्य क्षोभ होना चाहिये, और उसे किसी दूसरे ही विचारकी ओर जाना चाहिये-ऐसा ज्ञानी-पुरुषोंने जो निर्णय किया है, वह याथातथ्य है। .
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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