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________________ वर्ष २८वाँ परमपद-प्राप्तिकी भावना (अंतर्गत) गुणश्रेणीस्वरूप ४५६ बम्बई, कार्तिक १९५१ ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ! कब मैं बाह्य और अभ्यंतरसे निम्रन्थ बनूँगा ! समस्त संबंधके तीक्ष्ण बंधनको छेदकर कब मैं महान् पुरुषोंके पंथपर विचरण करूँगा ! ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ! ॥१॥ ___ समस्त भावोंसे उदासीन वृत्ति होकर, देह भी केवल संयमके ही हेतु रहे; तथा अन्य किसी कारणसे अन्य कुछ भी कल्पना न हो, और देहमें किंचिन्मात्र भी मूर्छाभाव न रहे । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा! ॥२॥ - दर्शनमोहनीयके नाश होनेसे जो ज्ञान उत्पन्न हो; तथा देहसे भिन्न शुद्ध चैतन्यके ज्ञानसे चारित्रमोहनीयको क्षीण हुआ देखें, इस तरह शुद्ध स्वरूपका ध्यान रहा करे । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा। ॥३॥ तीनों योगोंके मंद हो जानेसे मुख्यरूपसे देहपर्यंत आत्म-स्थिरता रहे । तथा इस स्थिरताका घोर परिषहसे अथवा उपसौके भयसे कभी भी अंत न आ सके । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा! ॥४॥ . संयमके हेतु ही योगकी प्रवृत्ति हो और वह भी जिनभगवान्की आज्ञाके आधीन होकर निजस्वरूपके लक्षसे हो । तथा वह भी प्रतिक्षण घटती हुई स्थितिमें हो, जो अन्तमें निज स्वरूपमें लीन हो जाय । ऐसा अपूर्व अवसर कब प्राप्त होगा ! ॥५॥ अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे? क्यारे थइशु बाह्मांतर निम्रन्य जो? सर्व संबंधनुं बंधन तिषण छेदीने, विचरशु कव महत्पुरुषने पंथ जो ? अपूर्व० ॥१॥ ' सर्व भावथी औदासीन्यवृत्ति करी, मात्र देह ते संयमहेतु होय जो; अन्य कारणे अन्य कशु कल्पे नहीं, देहे पण किंचित् मूळ नव जोय जो । अपूर्व ॥२॥ दर्शनमोह व्यतीत यई उपज्यो बोध जे, देह भिन्न केवळ चैतन्यन शान जो तेथी प्रवीण चारितमोह विलोकिये, वत्तें एवं शुद्धस्वरूप, भ्यान जो । अपूर्व ॥३॥ आत्मस्थिरता त्रण संक्षिस योगनी, मुख्यपणे तो वर्वे देहपर्यंत जो; घोर परिषद के उपसर्गमये करी, भावी शके नहीं ते स्थिरतानो अंत जो । अपूर्व ॥४॥ संयमना हेतुयी योगप्रवर्तना, स्वरूपलो जिनआय भाषीन को हे पण पण क्षण घटती जाती स्थितिमां, भते यावे निजलरूम कीन थे। मपूर्व० ॥५॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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