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________________ पत्र ४४२, ४४३] विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष मात्र केवल प्रारब्ध हो, और दूसरी कर्मदशा न रहती हो तो वह प्रारब्ध सहज ही निवृत्त हो जाता है, ऐसा परम पुरुषने स्वीकार किया है । परन्तु वह केवल प्रारब्ध उसी समय कहा जा सकता है जब प्राणोंके अंततक भी निष्ठाभेद-दृष्टि न हो, और तुझे सभी प्रसंगोंमें ऐसा होता है, इस प्रकार जबतक सम्पूर्ण निश्चय न हो तबतक यही श्रेयस्कर है कि उसमें त्याग बुद्धि करनी चाहिये । इस बातका विचार करके, हे जीव ! अब तू अल्प कालमें ही निवृत्त हो, निवृत्त ! ४४२ हे जीव ! अब तू संग-निवृत्तिरूप कालकी प्रतिज्ञा कर, प्रतिज्ञा ! यदि सर्वथा संग-निवृत्तिरूप प्रतिज्ञाका विशेष अवकाश देखनेमें आये तो एकदेश संगनिवृत्तिरूप इस व्यवसायका त्याग कर! जिस ज्ञान-दशामें त्याग-अत्याग कुछ भी संभव नहीं, उस ज्ञान-दशाकी जिसमें सिद्धि है, ऐसा तू सर्वसंग त्याग दशाका यदि अल्प कालमें ही वेदन करेगा, तो यदि तू सम्पूर्ण जगत्के समागममें रहे तो भी तुझे वह बाधारूप न हो, इस प्रकारसे आचरण करनेपर भी सर्वज्ञने निवृत्तिको ही प्रशस्त कहा है, क्योंकि ऋषभ आदि सब परम पुरुषोंने अंतमें ऐसा ही किया है। ४४३ बम्बई, भाद्र. सुदी १० रवि. १९५० यह आत्मभाव है और यह अन्यभाव है, इस प्रकार बोध-बीजके आत्मामें परिणमित होनेसे अन्यभावमें स्वाभाविक उदासीनता उत्पन्न होती है, और वह उदासीनता अनुक्रमसे उस अन्यभावसे सर्वथा मुक्त करती है। इसके पश्चात् जिसने निज और परके भावको जान लिया है ऐसे ज्ञानीपुरुषको पर-भावके कार्यका जो कुछ प्रसंग रहता है, उस प्रसंगमें प्रवृत्ति करते हुए भी उससे उस ज्ञानीका संबंध छूटा ही करता है, उसमें हित-बुद्धि होकर प्रतिबंध नहीं होता। प्रतिबंध नहीं होता, यह बात एकांत नहीं है। क्योंकि जहाँ ज्ञानका विशेष प्राबल्य न हो, वहाँ पर-भावके विशेष परिचयका उस प्रतिबंधरूप हो जाना भी संभव होता है और इस कारण भी श्रीजिनभगवान्ने ज्ञानी-पुरुषके लिये भी निज ज्ञानसे संबंध रखनेवाले पुरुषार्थका बखान किया है। उसे भी प्रमाद करना योग्य नहीं, अथवा पर-भावका परिचय करना योग्य नहीं, क्योंकि वह भी किसी अंशसे आत्म-धाराको प्रतिबंधरूप कहे जाने योग्य है। शानीको प्रमाद बुद्धि संभव नहीं है, ऐसा यद्यपि सामान्यरूपसे श्रीजिन आदि महात्माओंने कहा है, तो भी उस पदको चौथे गुणस्थानसे संभव नहीं माना, उसे आगे जाकर ही संभवित माना है। जिससे विचारवान जीवको तो अवश्य ही जैसे बने तैसे पर-भावके परिचित कार्यसे दूर रहनानिवृत्त होना ही योग्य है। .. प्रायः करके विचारवान जीवको तो यही बुद्धि रहती है। फिर भी किसी पारधके क्शसे यदि
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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